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मुझको ख़बर है मौत की, सौ बरस तक रहूँगा,

मुझको ख़बर है मौत की, सौ बरस तक रहूँगा,

जब तक हूँ ज़िन्दा उसकी, फ़िक्र तक न करूँगा।

मौत से पहले हार मानूँ, हो नहीं सकता,
भविष्य से भी रार ठानूँ, हो नहीं सकता।
क्या छिपा काल के गर्भ में, कौन जाने,
ज़िन्दगी को बिसरा दूँ, हो नहीं सकता।

सौ बरस हो जिन्दगी, यह कामना है,
अध्यात्म हो आराम भी, यह साधना है।
जब वृद्ध हो जाऊँगा, कुछ मुश्किलें होंगी,
दौलत से राह कुछ आसां, यह मानना है।

कर रहा सामां इकट्ठा, इसलिए सौ बरस का,
कोई और भोग लेगा, दुनिया में मैं न रहूँगा।
निष्क्रिय बनकर बैठे जायें, कल की न सोचें,
बदलते दौर में आश्रित बनकर, मैं न रहूँगा।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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