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जुर्म का , कि जुर्माना दीं

जुर्म का , कि जुर्माना दीं

अरुण दिव्यांश
जुर्म का , कि जुर्माना दीं
हर्ज का , कि हर्जाना दीं
का गरीबी बा अपराध
हैवानियत के बयाना दीं ?
बयाना पहिले बयान दीं
हम रउआ के सम्मान दीं
रउआ हमरा अपमान दीं
उल्टहीं हम अरमान दीं ?
ना जमाना जमींदारी के
बा जमाना ईमानदारी के
ना सवाल हल्का भारी के
तबहूॅं रउआ फरमान दीं ?
रउआ हमरा पसीनो ना
हम रउआ ला खून दीं
रउआ रखीं कदमो तले
हम रउआ ला जुनून दीं ?
हम रउआ त बानी एके
अमीर गरीब सवाल बा
अमीरी गरीबी जाति में
रोज उखड़त बवाल बा ।
का करी ऊॅंच नीच जाति
का करी कोई आरक्षण
कहाॅं कहाॅं सरकार देखी
ना होई कुविचार भक्षण ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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