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"निर्वाक क्षण का सौंदर्य"

"निर्वाक क्षण का सौंदर्य"

पंकज शर्मा
कैफ़े के शांत कोने में बैठी वह,
मानो समय से कुछ दूर उतर आई हो—
एक घूंट में, सकल दिन का कोलाहल
धीरे-धीरे किसी अप्रकट धुन की तरह
उसके भीतर ही विलीन होता जाता है।


सांझ की रोशनियाँ
दीवारों पर गिरती हुई
उसे किसी प्राचीन चित्र का स्पर्श देती हैं,
जैसे रोज़मर्रा के जीवन से हटकर
एक अलग ही संसार खुल गया हो।


उसकी दृष्टि में समाई निस्पंद गहराई
किसी ठहरे सरोवर सी लगती है—
सतह पर शांत,
पर भीतर कितनी अनकही लहरें
निरंतर अपनी यात्रा में।


जो कप वह थामे है,
वह केवल एक पेय का पात्र नहीं—
एक पुल है उसके अकेलेपन और
बाहर की हलचल के बीच,
जहाँ वह स्वयं से संवाद करती रहती है।


कभी-कभी, दुनिया को देखने का अर्थ
सिर्फ़ बाहरी दृश्य देखना नहीं होता;
स्वयं को देखने की कला भी
उसी में छिपी रहती है—
जैसे इस क्षण में उसके चेहरे पर
एक मौन दीप्ति तैर रही हो।


हवा हल्के से उसके वस्त्रों को छूती है,
और लगता है जैसे प्रकृति स्वयं
उसके चारों ओर कोई छोटी-सी
अदृश्य कथा बुन रही हो—
एक कथा, जो केवल संवेदनाएँ पढ़ पाती हैं।


समय यहाँ रुकता नहीं,
पर उसकी चाल धीमी पड़ जाती है—
जैसे जीवन हमें यह सिखाना चाहता हो
कि शांति भी एक प्रकार की यात्रा है,
जो भीतर की भूमियों तक ले जाती है।


और वह—
इस छोटे से कैफ़े में बैठी—
मानो यह समझ चुकी है
कि सौंदर्य का सबसे सच्चा रूप
उसी क्षण में खिलता है
जब हम स्वयं को स्वीकार कर
मौन में विश्रुत हो जाते हैं।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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