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वनिता सौंदर्य अपरंपार

वनिता सौंदर्य अपरंपार

कुमार महेंद्र
मोहक केश कृष्ण घटाएं,
सांझ सवेरे इठलाती ।
चारु चंद्र सी चंचलता,
नयन पटल इतराती ।
रवि सम बिंदियां चमक,
झुमकों संग झूमे संसार ।
वनिता सौंदर्य अपरंपार ।।


कपोल बिंदु गुलाबी रंगत,
मुस्कान सह नेह निर्झर ।
अधर लाली अमिय प्याली,
तृषा तृप्ति सदा बहर ।
माणिक हार कंठन शोभा,
स्वर मधुरिमा सदाबहार ।
वनिता सौंदर्य अपरंपार ।।


कलाई शोभित चूड़ी कंगना,
खनक संग प्रीत स्पंदन ।
अंतःकरण मृदुल मधुर,
स्नेह प्रेम करूणा मंडन ।
कटि सजी कंचुकी अनूप,
लहंगा लहर खुशियां अपार ।
वनिता सौंदर्य अपरंपार ।।


पायल रुनझुन चंचल नाद,
मेहंदी सजी रंगी श्रृंगार ।
लचक झलक जीवन संनाद,
लावण्य अतुल यौवन झंकार ।
बाह्य परे आत्मिक छवि अनघट,
सृष्टि सृजन दिव्य आधार।
वनिता सौंदर्य अपरंपार ।।


कुमार महेंद्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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