अलविदा वर्ष पच्चीस
✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"किसी को दुःख की झोली मिली,
किसी को सुख की छाया,
कभी तमस, कभी उजियारा,
वर्ष पच्चीस सब दिखलाया।
जो कुछ घटा न यूँ ही घटा,
सब ईश्वर की लीला भारी,
या अपने ही कर्मों का फल,
कर्मकथा जग ने विचारी।
जो आया है इस जग में,
उसका जाना भी तय होता,
जड़ हो चाहे जीवित प्राणी,
यह विधान न कभी खोता।
क्षणभंगुर यह जग की माया,
यहाँ टिकता कुछ पल भर,
साँस-साँस से बँधी हुई है,
जीवन की डोर निरंतर।
फूल जो आराध्य को चढ़ते,
न इठलाते एक क्षण,
काल प्रवाह में गले-गले,
सूख जाते वे भी क्षण-क्षण।
रूप-रंग और सुगंध सभी,
क्षणिक कथा बन जाते,
कालचक्र की परिधि में,
सब अपने दिन पाते।
ना रंजिश मन में पालो तुम,
ना मोह की बाँधो डोर,
भाव-बंधन को त्याग सको तो,
बन जाओ हरि-भजन चोर।
जो बीता सो बीत गया अब,
सीख बने जय-पराजय,
हँसते-हँसते विदा करें हम,
वर्ष पच्चीस का शुभ आशय।
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