भारतीय सिनेमा की खोई हुई आत्मा की वापसी है - फिल्म ‘धुरंधर’
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
भारतीय सिनेमा और उसके दर्शकों के बीच का रिश्ता कभी अत्यंत आत्मीय हुआ करता था। यह केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं था, बल्कि सामाजिक चेतना, राष्ट्रीय भावनाओं और सामूहिक स्मृतियों का साझा मंच था। सिनेमा एक ऐसा आईना था, जिसमें समाज खुद को पहचानता था, अपनी कमजोरियों के साथ, अपने गर्व के क्षणों के साथ।
पिछले लगभग डेढ़-दो दशकों में यह रिश्ता धीरे-धीरे दरकने लगा। मल्टीप्लेक्स संस्कृति, कॉरपोरेट निवेश, ओटीटी प्लेटफॉर्म और तथाकथित “ग्लोबल सिनेमा टेस्ट” ने भारतीय दर्शक को हाशिये पर धकेल दिया। बड़े बजट की फिल्मों के बावजूद सिनेमाघर खाली रहने लगा। दर्शक मौजूद रहता था, लेकिन सिनेमा उससे बात नहीं कर रहा था।
सबसे अधिक उपेक्षित विषयों में एक था “देशभक्ति”, या तो इसे जरूरत से ज्यादा भावुक, चीख-चिल्लाहट भरा बना दिया गया या फिर इसे “पुराना”, “गैर-प्रासंगिक” और “राजनीतिक रूप से जोखिम भरा” मानकर किनारे कर दिया गया। इसी ठहरे हुए माहौल में ‘धुरंधर’ का आना केवल एक फिल्म का रिलीज होना नहीं था बल्कि यह भारतीय सिनेमा में संवेदनशील राष्ट्रवाद की पुनर्वापसी थी।
भारतीय सिनेमा के तथाकथित नैतिक अभिभावक, स्टूडियो प्रमुख, बड़े निर्देशक, तथाकथित फिल्म समीक्षक और पुरस्कार समितियाँ एक लंबे समय तक यह मानकर चलती रही कि दर्शक या तो सिर्फ हल्का-फुल्का मनोरंजन चाहता है या फिर उसे “वैश्विक दर्शक” की तरह प्रशिक्षित करना होगा।
इस सोच का परिणाम यह हुआ कि आम भारतीय की भावनाएँ, उसकी राष्ट्रबोध की समझ और उसकी ऐतिहासिक स्मृति, सबको “ओवरसिंपल”, “पॉपुलिस्ट” या “प्रोपेगेंडा” कहकर खारिज कर दिया गया। देशभक्ति को या तो बैकग्राउंड में धकेल दिया गया या फिर उसे इतने सतही तरीके से दिखाया गया कि वह कार्टून बनकर रह गया।
यह प्रश्न जरूरी है कि आखिर भारतीय सिनेमा में देशभक्ति असहज क्यों हो गई? निर्माताओं को डर था कि देशभक्ति दिखाने पर उन्हें किसी न किसी खांचे में डाल दिया जाएगा। एक वर्ग ऐसा बन गया जो मानने लगा कि देशभक्ति यानि पिछड़ापन, राष्ट्र यानि भीड़ और गर्व यानि आक्रामकता। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में ताली पाने की होड़ में समाज की जड़ों को “अनकूल” समझा गया।
‘धुरंधर’ किसी बड़े शोर-शराबे के साथ नहीं आई। न इसके ट्रेलर में उन्माद था, न प्रचार में अतिरेक। लेकिन फिल्म ने जो किया, वह बेहद साहसिक था इसने दर्शक पर भरोसा किया। फिल्म ने यह मानकर कहानी कही कि दर्शक समझदार है, संवेदनशील है और उसे उपदेश नहीं, अनुभूति चाहिए।
‘धुरंधर’ का राष्ट्रवाद न तो गुस्से से भरा है, न किसी को नीचा दिखाने की कोशिश करता है। यह राष्ट्रवाद है आत्मविश्वासी, शांत, गरिमामय और समावेशी। यह फिल्म यह नहीं कहती है कि “हम श्रेष्ठ हैं, इसलिए तुम घटिया हो” बल्कि यह कहती है कि “हम अपनी जिम्मेदारी जानते हैं और यही हमारा गर्व है।”
‘धुरंधर’ का नायक कोई अतिमानवी सुपरहीरो नहीं है। वह नारे नहीं लगाता है, वह दुश्मन को गाली नहीं देता है। वह अपने काम से राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा दिखाता है। यह बदलाव बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारतीय सिनेमा लंबे समय से या तो अत्यधिक कमजोर नायक दिखा रहा था या फिर अतार्किक, हिंसक मसीहा। ‘धुरंधर’ इन दोनों ध्रुवों से बाहर निकलकर एक जिम्मेदार भारतीय को सामने रखता है।
यह मान लेना कि दर्शक केवल उत्तेजना चाहता है, एक बहुत बड़ी भूल थी। ‘धुरंधर’ की सफलता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि दर्शक देशभक्ति की प्रशंसा करता है लेकिन नफरत से असहमत है। वह गर्व चाहता है, पर घमंड नहीं। वह इतिहास चाहता है, पर विकृति नहीं। यह दर्शक परिष्कृत है, विवेकशील है और सिनेमा से संवाद चाहता है।
‘धुरंधर’ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह राष्ट्रवाद को नफरत की राजनीति से अलग करती है। फिल्म में कोई समुदाय खलनायक नहीं है। कोई मजहब दुश्मन नहीं है। दुश्मनी का कारण विचार और कर्तव्य है, पहचान नहीं है। यह दृष्टि भारतीय सिनेमा के लिए एक नई नैतिक दिशा है।
दिलचस्प यह रहा कि फिल्म समीक्षकों का एक बड़ा वर्ग या तो चुप रहा या फिल्म को “सुरक्षित” तरीके से नजरअंदाज करता रहा। लेकिन दर्शकों ने टिकट खिड़की पर, सोशल मीडिया पर और थिएटर के बाहर अपनी प्रतिक्रिया साफ शब्दों में दी है। यह दर्शाता है कि आज भी सिनेमा की असली अदालत दर्शक ही है।
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि क्या ‘धुरंधर’ केवल एक अपवाद है या भारतीय सिनेमा के लिए एक नए युग का संकेत? यदि निर्माता और निर्देशक इस फिल्म से यह सीख लें कि दर्शक को कम मत आँको, राष्ट्रवाद से मत डरो और संवेदना को प्राथमिकता दो, तो यह फिल्म केवल हिट नहीं है बल्कि ऐतिहासिक मोड़ साबित होगी।
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