संस्कृति, कैलेंडर और चेतना का उत्सव है - “नववर्ष”
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |नववर्ष केवल तारीख बदलने का नाम नहीं है, बल्कि यह जीवन, चिंतन और आचरण में नव्यता लाने का अवसर होता है। दुनिया के सभी देशों और सभी धर्मों में नववर्ष अलग-अलग परंपराओं, विश्वासों और सांस्कृतिक विधानों के साथ मनाया जाता है। भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से विविध देश में, नववर्ष एक नहीं है, बल्कि अनेक रूपों में हर क्षेत्र, हर भाषा और हर परंपरा के अनुसार मनाया जाता है।
दुनिया के अधिकांश देश 1 जनवरी को नववर्ष मनाते हैं। इसके पीछे हजारों वर्षों का ऐतिहासिक आधार है।
प्राचीन काल में, विशेषकर ईसाई बाहुल्य देशों में, नया साल 25 मार्च या 25 दिसंबर को मनाने की परंपरा थी। लेकिन 45 ईसा पूर्व रोमन शासक जूलियस सीजर ने खगोलविदों के सहयोग से पृथ्वी की सूर्य परिक्रमा का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि पृथ्वी को सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में 365 दिन और लगभग 6 घंटे लगता है। इसी गणना के आधार पर उन्होंने 12 महीनों वाला जूलियन कैलेंडर लागू किया और हर चार वर्ष में फरवरी को 29 दिनों का कर “लीप ईयर” की व्यवस्था की। इसी कैलेंडर में पहली बार 1 जनवरी को नववर्ष की शुरुआत मानी गई।
समय के साथ जूलियन कैलेंडर में कुछ त्रुटियाँ सामने आईं। इन्हें सुधारने के लिए 1582 में पोप ग्रेगरी XIII ने ग्रेगोरियन कैलेंडर लागू किया। इटली, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल ने सबसे पहले इसे अपनाया। बाद में जर्मनी, ब्रिटेन, रूस, चीन और जापान सहित अनेक देशों ने इसे स्वीकार किया। भारत में ब्रिटिश शासन के कारण 1752 में यह कैलेंडर लागू हुआ, जिसे आज लोग अंग्रेजी कैलेंडर कहते हैं।
भारत में नववर्ष की अवधारणा केवल 1 जनवरी तक सीमित नहीं है। यहाँ विभिन्न पंचांगों और सांस्कृतिक परंपराओं के अनुसार अलग-अलग समय पर नववर्ष मनाया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से नववर्ष का आरंभ होता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत का नया वर्ष भी शुरू होता है। वैदिक परंपरा में चैत्र मास को मधु मास कहा गया है अर्थात आनंद और वसंत का महीना।
भारत की सांस्कृतिक विविधता नववर्ष उत्सवों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश में गुड़ी पड़वा / उगादी। पंजाब में बैसाखी। तमिलनाडु में पुथंडु। असम में बोहाग बिहू। पश्चिम बंगाल में बंगाली नववर्ष। केरल में विषु। कश्मीर में नवरेह। दीपावली के बाद गुजराती नववर्ष। इस्लामिक परंपरा में हिजरी नववर्ष। गुड़ी पड़वा को विजय और नवसंवत्सर का प्रतीक माना जाता है। ‘गुड़ी’ अर्थात विजय पताका और यह पर्व शालिवाहन शक की शुरुआत से भी जुड़ा है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही चैत्र नवरात्र का शुभारंभ होता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान विष्णु का प्रथम अवतार हुआ और इसी दिन से सृष्टि में ग्रह-नक्षत्रों की नई गति आरंभ होती है। इस दिन ब्रह्मा, विष्णु, देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों और समस्त सृष्टि तत्वों का पूजन किया जाता है।
31 दिसंबर की आधी रात को केक काटना, आतिशबाजी करना, शराब पार्टी करना। आज यह नववर्ष उत्सव का वैश्विक स्वरूप बन गया है। बत्तियाँ बुझाकर अंधकार करना, फिर अचानक रोशनी करना और “हैप्पी न्यू ईयर” का शोर। यह सब आधुनिक परंपराएँ हैं, जो धीरे-धीरे हर समाज में प्रवेश कर गई हैं।
सनातन संस्कृति में प्रकाश को ज्ञान और अंधकार को अज्ञान माना गया है। जबकि आधुनिक नववर्ष उत्सव में पहले अंधकार किया जाता है, फिर शोर-शराबा। दीपक बुझाना, मोमबत्ती फूँकना, यह सब सनातन मान्यताओं के विपरीत माना जाता है, जहाँ दीपक का बुझना अपशकुन समझा जाता है। सनातन परंपरा में खुशी में दीप जलाया जाता है। प्रसाद के रूप में मोतीचूर लड्डू बाँटा जाता है। लड्डू एकता और समरसता का प्रतीक है, क्योंकि अनेक कण मिलकर एक रूप लेता है।
आज हर उत्सव में केक काटना सामान्य हो गया है। केक काटकर अपना हिस्सा अलग कर लेना और बाकी से उदासीन हो जाना, यह मानसिकता धीरे-धीरे समाज को एकाकी और सीमित बना रही है। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति साझेदारी और सामूहिक आनंद सिखाती है।
आज प्रश्न यह नहीं है कि हम कौन-सा नववर्ष मनाते हैं, बल्कि यह है कि कैसे मनाते हैं। जरूरत है भारतीय संस्कृति के अनुरूप शाकाहार अपनाने की, गुरुकुल शिक्षा पद्धति पर पुनर्विचार करने की, स्मार्ट सिटी के साथ-साथ स्मार्ट विलेज की अवधारणा को बढ़ाने की, गौ-सेवा और बुजुर्गों के सम्मान को जीवन में स्थान देने की।
नववर्ष केवल उत्सव नहीं है, बल्कि आत्मनिरीक्षण और संकल्प का अवसर है। यदि लोग अपनी संस्कृति, संस्कार और मूल्यों को समझकर नववर्ष मनाएँ, तो यही नववर्ष वास्तव में लागों के जीवन में नव प्रकाश लेकर आएगा। --------------
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