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लालची जीभ और हमारी भूल

लालची जीभ और हमारी भूल

रचनाकार ------✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"

लालची जीभ ने रस माँगा,
बुद्धि गई फिर सोई,
थाली भर-भर स्वाद बटोरे,
सेहत पीछे खोई।
क्षणिक सुख के लोभ में आकर,
संयम हमने तोड़ा,
स्वाद जीतता हर निर्णय में,
विवेक भी साथ छोड़ा।
मीठा, तीखा, खट्टा-नमकीन,
जीभ बनी सरताज,
पेट, तन और मन सब हारे,
राज किया बस स्वाद।
जो हितकारी वह होता कड़वा,
उससे मुँह हमने मोड़ा,
होते जो हानिकर, स्वाद भरा,
उसे भोजन में जोड़ा।
जीभ कहे- “स्वाद जिसमें खाओ",
मन को क्यों मारें हर रोज,
बस इतनी सी गलती हमारी,
करना पड़ा वैद्यजी का-खोज।
जब रोग खड़े हों तन हमारे,
तब पछतावा आए,
काश! समय पर जीभ बाँधते,
जीवन सरल बन जाए।
संयम ही है सच्चा स्वाद,
यह समझ अगर आ जाए,
लालच हारे, बुद्धि जीते,
तन-मन स्वस्थ हो जाए।
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