तोरण द्वार की गाथा: स्थापत्य, संस्कृति
सत्येन्द्र कुमार पाठक
तोरण द्वार—केवल एक प्रवेश द्वार नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता, स्थापत्य कला और सामाजिक संस्कारों का एक सशक्त हस्ताक्षर है। यह शब्द सुनते ही मन में भव्य मंदिरों के अलंकृत मेहराब या विवाह मंडप के प्रवेश द्वार पर लटकता वह प्रतीक साकार हो जाता है, जिस पर दूल्हा अपनी वीरता सिद्ध करता है। यह एक ऐसा सांस्कृतिक प्रतीक है जिसने प्राचीन सनातन काल से लेकर आधुनिक युग तक, विभिन्न शासनों और सामाजिक परिवर्तनों को आत्मसात किया है, लेकिन आज इसकी एक महत्त्वपूर्ण रस्म गंभीर सांस्कृतिक भ्रम का शिकार हो गई है।
'तोरण' शब्द संस्कृत के 'तोर' (पार करना/प्रवेश करना) से आया है, जिसका मूल अर्थ 'प्रवेश द्वार' है। भारतीय स्थापत्य में तोरण का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण प्रमाण साँची के स्तूपों (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) में मिलता है।
प्राचीन काल में तोरण, मुख्य रूप से मंदिरों, स्तूपों और विहारों के चारों ओर बनी बाड़ या प्राचीर में प्रवेश के लिए निर्मित होते थे। साँची के तोरण, जो चार दिशाओं में स्थापित हैं, केवल प्रवेश द्वार नहीं थे; वे पत्थर पर उकेरी गई कथाएँ थे। ये बुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं और सामाजिक दृश्यों को दर्शाते थे। ये तोरण पवित्र क्षेत्र में प्रवेश, शुभता और संसारिक से पारलौकिक यात्रा के प्रतीक थे। इनकी संरचना में दो ऊर्ध्वाधर खंभे और उनके ऊपर तीन क्षैतिज मेहराबी बीम होते थे, जो ब्रह्मांडीय संरचना का भी प्रतिनिधित्व करते थे।
विवाह की रस्म में तोरण का उपयोग इसी शुभता और पवित्रता के विचार से जुड़ा है, लेकिन इसका एक विशिष्ट पौराणिक आधार है—वीरत्व की कसौटी। लोक कथाओं के अनुसार, एक तोरण नामक राक्षस तोते का रूप धारण कर दुल्हन के घर के प्रवेश द्वार पर बैठ जाता था, ताकि वह दूल्हे को परेशान कर उसका स्थान ले सके। जब एक विद्वान और साहसी राजकुमार ने इसे पहचान कर तलवार से उस प्रतीक (राक्षसी तोते) को मार गिराया, तब से यह रस्म स्थापित हुई। यह रस्म प्रतीकात्मक रूप से यह स्थापित करती है कि दूल्हा अपनी पत्नी की सुरक्षा के लिए साहसी, बलवान और जागरूक है—ठीक वैसे ही जैसे राजकुमार ने किया था।
मध्यकाल में भारतीय स्थापत्य पर इस्लामी और क्षेत्रीय शैलियों का गहरा प्रभाव पड़ा। मुगल वास्तुकला में, तोरण का शास्त्रीय स्वरूप मेहराब (Arch) और विशाल दरवाजा (Gate) में विलीन हो गया। मुगल इमारतों में 'तोरण' की जगह 'दरवाजा' या 'इवान' शब्द प्रचलित हुए (जैसे बुलंद दरवाजा), जो भव्यता, मजबूती और इस्लामी सजावटी तत्वों से सुसज्जित होते थे। हालांकि, राजपूत और विजयनगर जैसे हिन्दू राज्यों में पारंपरिक तोरणों का निर्माण जारी रहा। राजस्थान और गुजरात के मंदिरों और महलों में जटिल नक्काशीदार तोरण पाए जाते हैं, जो भारतीय शिल्पकला की अद्भुत मिसाल हैं। इस काल में भी, घरों और विवाह समारोहों में फूलों, आम के पत्तों और वस्त्रों से बने सजावटी तोरण (बंदनवार) का उपयोग शुभता और स्वागत के प्रतीक के रूप में आम रहा। ब्रिटिश काल में स्थापत्य का मिश्रण हुआ, लेकिन धार्मिक और सामाजिक रस्मों पर सीधे हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में विवाह की तोरण रस्म ने अपना अस्तित्व बनाए रखा। यह रस्म गाँवों और कस्बों में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही, जबकि ब्रिटिश पुरातत्वविदों ने प्राचीन तोरणों का अध्ययन कर उन्हें वैश्विक पटल पर है।
आज़ादी के बाद, तोरण ने राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बनाई, लेकिन विवाह की रस्मों में इसका स्वरूप बदल गया। बाज़ारीकरण और शहरीकरण ने इस परंपरा में एक गंभीर विसंगति उत्पन्न कररस्म का मूल तत्त्व राक्षस का प्रतीक (लकड़ी का तोता) था, जिस पर वार करना थआज बाज़ार में बिकने वाले तोरण अक्सर सुंदर और आकर्षक होते हैं, लेकिन उन पर गणेशजी, स्वास्तिक, ॐ या अन्य पूज्यनीय देवी-देवताओं के चिह्न अंकित होते हैं।यह विसंगति धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अस्वीकार्य है। विवाह समारोह के आरंभ में ही हम सर्वप्रथम गणेश पूजन करते हैं, उन्हें 'विघ्नहर्ता' मानकर सभी बाधाएं दूर करने का निमंत्रण देते हैं। ऐसे में, जब दूल्हा तलवार लेकर उस तोरण पर वार करता है जिस पर गणेशजी या कोई अन्य पूज्य चिह्न अंकित हो, तो वह अनजाने में पूज्य देवता का अपमान कर रहा होता है। धार्मिक विशेषज्ञ इस कार्य को गंभीर धार्मिक त्रुटि मानते हैं, क्योंकि यह उस पूजा और शुभ संकल्प के विपरीत है जिसके साथ विवाह आरंभ होता है। यह एक स्पष्ट विरोधाभास है: जहाँ एक ओर हम देवताओं का आवाहन करते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतीकात्मक रूप से उन पर प्रहार करता है।
तोरण रस्म भारतीय सभ्यता की एक अनमोल विरासत है, लेकिन इसका सही अर्थ समझना और उसका शुद्ध रूप में पालन करना हमारा दायित्व है। सत्य की पहचान: हमें यह याद रखना होगा कि तलवार का वार राक्षस के प्रतीक पर होता है, न कि किसी देवता के प्रतीक पर। परिवारों को विवाह आयोजकों को स्पष्ट निर्देश देने चाहिए कि तोरण केवल पारंपरिक राक्षसी रूपी तोते वाला ही हो, जिस पर किसी भी प्रकार का धार्मिक या मांगलिक चिह्न अंकित न हो: पुरोहितों और सांस्कृतिक शिक्षकों को इस रस्म के पीछे की प्रामाणिक कथा से लोगों को अवगत कराना चाहिए ताकि यह विसंगति दूर हो सके। तोरण द्वार केवल सजावट नहीं, बल्कि दूल्हे के साहस और सुरक्षा के संकल्प का प्रतीक है। आइए, हम इस ऐतिहासिक रस्म को उसके वास्तविक गौरव, पवित्रता और सत्यता के साथ निभाएं, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी संस्कृति के इस मूल अर्थ को समझ सके ।
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