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"लकीरों का अनकहा स्पर्श"

"लकीरों का अनकहा स्पर्श"

पंकज शर्मा
हथेली खोलता हूँ—
रोशनी एक क्षण ठहरती है
और रेखाएँ
मानो किसी मौन अनुबंध की तरह
मेरे ही भीतर उतरने लगती हैं।


भाग्य?
शायद वह कोई रेखा नहीं—
एक प्रश्न है
जो प्रत्येक स्पर्श पर
नव-स्वरूप ले लेता है।
मैं केवल उसका प्रतिध्वनि-वाहक।


कुछ लकीरें—
अडिग, लगभग जड़वत;
कुछ धुँधली—
जैसे समय ने धीमे-धीमे
उनकी देह को मिट्टी में मिला दिया हो।


फिर भी—
इन्हीं के बीच
संभावना की एक छोटी, नील-सी लौ
प्रतिदिन टिमटिमाती रहती है;
उसका कंपन ही शायद
मेरी दिशा है।


कभी-कभी लगता है
मैं स्वयं ही एक जाल हूँ—
इच्छाओं का, प्रश्नों का,
और उन अधूरे स्वप्नों का
जो मेरे भीतर
किसी गुप्त जल की तरह बहते हैं।


अपने हाथ सामने रखता हूँ—
बीते हुए क्षण
उनकी तहों में लौट आते हैं,
और पूर्ण हुए स्वप्न
एक हल्की-सी आह बनकर
कंधे पर टिक जाते हैं।


पर आशाएँ—
वे सदैव अनाम रहती हैं;
उनका जन्म ही
किसी अनदेखी दिशा में होता है।
मैं केवल उनकी आवाज़
धीरे-धीरे सुन पाता हूँ।


और इस विस्तृत, लगभग वन-सरीखी
रेखाओं की दुनिया में
मैं अब भी खोजता हूँ
वह क्षीण पगडंडी
जो शायद मुझे
मेरे ही निःशब्द केंद्र तक
ले जाए।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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