"अंतर्ध्वनि"
पंकज शर्मा
ऋतुओं की गणना केवल
पर्णपाती संख्याओं का भ्रम है।
वास्तविक मापन तो
उन अदेखे झंझावातों में है,
जिन्हें अंतरंग आत्मा ने सहा।
आयु तो बस एक पंक्ति है,
समय के फलक पर खिंची हुई,
पर परिपक्वता, वह मौन गूँज है,
जो हर खंडित पल से उपजी,
और भीतर समा गई।
यह संसार पुस्तक नहीं,
असंख्य पाठों का महाकाव्य है,
जिसके पृष्ठों पर रक्त और अश्रु से,
जीवन की गूढ़ लिपियाँ उत्कीर्ण हैं,
जो हमें तोड़ती हैं, फिर गढ़ती हैं।
ज्ञान का स्रोत किसी पोथी में नहीं,
न ही वर्षों के संचय में,
यह तो उस मौन समझ में है,
जो हर सुबह की नव चेतना में जगती,
और स्वयं को पहचानती है।
प्रत्येक अस्त होता सूर्य,
केवल दिन का अंत नहीं,
यह एक पाठ का समापन है,
जहाँ से नवीन बोध का अंकुर फूटता है,
एक और परत जुड़ती है अंतर्मन में।
जीना मात्र श्वास लेना नहीं,
न ही भौतिक उपस्थिति का बोध,
जीना तो है हर क्षण में खोजी हुई
उस नूतन दृष्टि का विस्तार,
जो अस्तित्व के रहस्य को छू ले।
गहराई किसी माप की मोहताज नहीं,
यह तो चेतना का वह आयाम है,
जहाँ पीड़ा और शांति एकाकार होते हैं,
व्यक्ति स्वयं को पाषाण से भी अधिक दृढ़,
जल से भी अधिक निर्मल पाता है।
अतः व्यतीत हों दिवस, मास और वर्ष,
पर हर विहान लाए एक प्रश्न, एक उत्तर,
एक नई अंतर्ध्वनि,
जो हमें मात्र "बड़े" नहीं,
अपितु "गहरे" होने का मार्ग दिखा जाए।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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