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"क्षणों की निरंतर नदी"

"क्षणों की निरंतर नदी"

पंकज शर्मा
हर ढलती रात के संग
हम एक अनजानी रेत पर
धीरे-धीरे अपने ही पदचिह्न खोते जाते हैं—
मानो समय की उंगलियाँ
हमारे अस्तित्व को हल्के स्पर्श से
अतीत में बदलती चलती हों।


हमारे भीतर का प्रकाश
दिन की चमक में नहीं,
बल्कि अँधेरे की थकान में निखरता है।
जहाँ स्मृतियाँ
जुगनुओं-सी टिमटिमाती हुई
कभी राह दिखाती हैं,
कभी स्वयं ही दिशा पूछती फिरती हैं।


क्षणों का यह प्रवाह
कभी शांत धारा-सा,
कभी उफनती लहरों की रुणझुणाहट-सा
हमारे अंतर में टूटता-बनता है।
और हम महसूस करते हैं
कि जीने की क्रिया
हमेशा वर्तमान से कम,
बीते हुए की प्रतिध्वनि से अधिक बनी रहती है।


कभी ऐसा लगता है
जैसे जीवन एक अधूरी पंक्ति है
जिसे लिखने वाला
हर दिन थोड़ा-थोड़ा मिटा देता है।
फिर भी हम
नई स्याही से उसे भरने की
अदम्य कोशिश करते रहते हैं,
यही शायद मनुष्य होने का
सबसे गुप्त रहस्य है।


कुछ क्षण
हमारे होंठों तक आते-आते
अपना अर्थ बदल देते हैं।
हम सोचते कुछ हैं,
होता कुछ और है;
और इस अन्तर्विरोध में ही
हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व
धीरे-धीरे आकार लेता है।


अंततः
जब रात का आख़िरी तारा
नींद की देहरी पर झिलमिलाता है,
हम स्वीकारते हैं—
आज का हर क्षण
कल की स्मृति बनने को आतुर है।
और हम,
समय की अनंत पुस्तक में
एक-एक कर पन्नों की तरह
जुड़ते, जुड़ते…
धीरे-धीरे अतीत होते जाते हैं।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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