
क्या यही भारतीय संस्कारों की बहुएँ हैं?
— डॉ. ऋचा दुबे
आज के समय में सामाजिक परिवर्तन की तेज़ आँधी ने भारतीय परिवार की संरचना और संबंधों की संवेदनशील डोर को गहरे प्रश्नों के घेरे में ला खड़ा किया है। सुबह देर से उठती बहुएँ, हाथ में लैपटॉप और मन में ऑफिस की जल्दी—यह दृश्य अब असामान्य नहीं रहा। परंतु इसी दृश्य के पीछे एक और तस्वीर है, जो अक्सर अनदेखी रह जाती है। घर का काम कैसे होगा, बुज़ुर्ग क्या खाएँगे, बच्चों की दिनचर्या कौन संभालेगा—इन प्रश्नों की चिंता मानो धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। रसोई में सन्नाटा है, आँगन में अपनापन कम होता जा रहा है और घर की धड़कन—वह वृद्ध सास—अपनी किस्मत को कोसती रह जाती है। जीवन के संध्याकाल में, जब उसे सहारे और स्नेह की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, तब वही सास अकेलेपन और उपेक्षा का दंश झेलती है। विडंबना यह है कि इस पूरे परिदृश्य में बेटा भी मौन है—न संवाद, न संतुलन, न संवेदना। यह चुप्पी केवल व्यक्ति की नहीं, बल्कि मूल्यों के क्षरण की चुप्पी है। प्रश्न यह नहीं कि बहुएँ नौकरी करें या नहीं—नारी का आत्मनिर्भर होना समय की आवश्यकता है—प्रश्न यह है कि क्या आत्मनिर्भरता संवेदनहीनता का पर्याय बन सकती है? क्या आधुनिकता का अर्थ पारिवारिक उत्तरदायित्वों से पलायन है? भारतीय संस्कारों की आत्मा सह-अस्तित्व, कर्तव्य और करुणा में बसती है; जहाँ काम और परिवार, दोनों के बीच संतुलन साधा जाता है। यदि यह संतुलन टूटता है तो घर केवल ईंट-पत्थर का ढाँचा रह जाता है। समाधान आरोपों में नहीं, संवाद में है—परिवार के भीतर भूमिकाओं का पुनर्संयोजन, बेटों की सक्रिय सहभागिता, और बहुओं की व्यावसायिक आकांक्षाओं के साथ पारिवारिक संवेदनाओं का सम्मान। तभी भारतीय संस्कार आधुनिकता के साथ कदम मिलाकर चल पाएँगे, और घर फिर से घर बन सकेगा—जहाँ हर पीढ़ी सुरक्षित, सम्मानित और सुनी जाए।
आज का भारतीय परिवार एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ परंपरा और आधुनिकता आमने-सामने खड़ी दिखाई देती हैं। सुबह का समय, जो कभी घर के जागरण, रसोई की चहल-पहल, चाय की सुगंध और बुज़ुर्गों के आशीर्वाद से आरंभ होता था, अब अलार्म की तीखी आवाज़, मोबाइल की स्क्रीन और लैपटॉप की फाइलों में सिमटता जा रहा है। आज की बहुएँ देर से उठती हैं—या यूँ कहें कि उनका उठना घर के सूर्योदय से नहीं, बल्कि ऑफिस की समय-सारणी से निर्धारित होता है। उन्हें जल्दबाज़ी होती है—ऑनलाइन मीटिंग, ई-मेल, प्रेज़ेंटेशन और टारगेट्स की। इस आपाधापी में घर की चिंता कहीं पीछे छूट जाती है। रसोई में क्या बनेगा, घर के लोग क्या खाएँगे, बुज़ुर्गों की दवाइयाँ समय पर ली गईं या नहीं, बच्चों का नाश्ता हुआ या नहीं—इन प्रश्नों का उत्तर अब अक्सर मौन में खो जाता है। इसी मौन में एक बूढ़ी सास बैठी रहती है, जो अपने जीवन के सबसे सक्रिय वर्षों को परिवार पर न्योछावर कर चुकी होती है। वह अपनी कांपती उँगलियों से चूल्हा जलाने की कोशिश करती है, घुटनों के दर्द के बावजूद रोटी सेंकती है और मन-ही-मन अपनी किस्मत को कोसती है कि क्या यही उसके त्याग का प्रतिफल है। वह सोचती है कि उसने भी तो कभी अपने सपनों को घर की देहरी पर छोड़ दिया था, उसने भी तो अपने सुख-दुख को परिवार की ज़रूरतों के नीचे दबा दिया था, फिर आज उसकी बहू को यह सब बोझ क्यों लगता है? पीड़ा तब और गहरी हो जाती है जब उसका बेटा—जिसे उसने नौ महीनों तक कोख में पाला, जीवन के हर संघर्ष में आगे बढ़ाया—वह भी चुप रहता है। न वह पत्नी से कुछ कहता है, न माँ के आँसुओं को पोंछता है। यह चुप्पी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस सामाजिक संरचना की चुप्पी है जो धीरे-धीरे अपने मूल्यों से कटती जा रही है। प्रश्न यहाँ यह नहीं है कि बहुएँ नौकरी क्यों करती हैं या उन्हें काम करने का अधिकार है या नहीं—निस्संदेह है। नारी का शिक्षित, आत्मनिर्भर और सशक्त होना समाज की प्रगति का संकेत है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सशक्तिकरण का अर्थ संवेदनाओं का क्षरण है? क्या आत्मनिर्भरता का मतलब पारिवारिक उत्तरदायित्वों से विमुख हो जाना है? भारतीय संस्कृति ने कभी यह नहीं सिखाया कि घर और बाहर में से किसी एक को चुनना पड़े। यहाँ तो सदा संतुलन का दर्शन रहा है—कर्तव्य और अधिकार, स्व और समष्टि, व्यक्तिगत आकांक्षा और पारिवारिक दायित्व का संतुलन। आज वही संतुलन डगमगाता दिखाई देता है। बहुएँ अक्सर यह तर्क देती हैं कि वे थकी होती हैं, उन्हें ऑफिस का तनाव झेलना पड़ता है, उनके पास समय नहीं होता। यह तर्क अपनी जगह सही हो सकता है, पर क्या घर के अन्य सदस्य थकते नहीं? क्या बुज़ुर्गों की थकान दिखाई नहीं देती? क्या उनकी भावनात्मक ज़रूरतें कम महत्वपूर्ण हैं? एक घर केवल आर्थिक सहयोग से नहीं चलता, वह स्नेह, संवाद और संवेदना से जीवित रहता है। यदि बहू सुबह देर से उठती है तो यह केवल देर से उठने की बात नहीं, यह उस दूरी का प्रतीक है जो परिवार के भीतर बढ़ती जा रही है। सास-बहू का संबंध, जिसे कभी गृहस्थी की रीढ़ माना जाता था, आज अविश्वास, तुलना और अपेक्षाओं के बोझ तले दबता जा रहा है। सास अपनी पीढ़ी के संस्कारों के आधार पर सोचती है, बहू अपनी पीढ़ी की स्वतंत्रता के आधार पर। इन दोनों के बीच सेतु बनने वाला बेटा यदि मौन साध ले तो टकराव और पीड़ा का बढ़ना स्वाभाविक है। बेटे की भूमिका यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन दुर्भाग्यवश आधुनिक समाज ने पुरुष को केवल कमाने वाली मशीन बना दिया है। वह घर के भावनात्मक प्रबंधन से स्वयं को अलग कर लेता है। परिणामस्वरूप घर में संवाद समाप्त होता है और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है। बुज़ुर्ग माँ सोचती है कि उसकी बहू उसे बोझ समझती है, बहू सोचती है कि सास उसकी स्वतंत्रता में बाधा है, और बेटा दोनों के बीच पिसता हुआ भी चुप रहता है। यही चुप्पी रिश्तों को धीरे-धीरे खोखला कर देती है। भारतीय संस्कार कभी भी नारी को घर की चारदीवारी में बाँधने के पक्षधर नहीं रहे, लेकिन उन्होंने यह अवश्य सिखाया कि परिवार समाज की प्रथम पाठशाला है। यदि इस पाठशाला में ही संवेदना, सेवा और समर्पण का पाठ न पढ़ाया जाए तो समाज का भविष्य कैसा होगा? आज की बहुएँ कल की सास होंगी—यह सत्य है। जो व्यवहार आज वे अपनी सास के साथ कर रही हैं, वही कल उन्हें भी झेलना पड़ सकता है। समय का चक्र किसी को नहीं बख्शता। इसलिए यह आत्ममंथन आवश्यक है कि हम किस प्रकार की सामाजिक विरासत अगली पीढ़ी को सौंप रहे हैं। आधुनिकता का अर्थ परंपरा का परित्याग नहीं, बल्कि उसे समयानुकूल ढालना है। यदि बहू कामकाजी है तो घर की ज़िम्मेदारी केवल सास पर क्यों? पति क्यों हाथ नहीं बँटाता? क्यों न परिवार सामूहिक रूप से दिनचर्या तय करे, क्यों न रसोई, देखभाल और भावनात्मक सहयोग की ज़िम्मेदारी साझा की जाए? समाधान एक-दूसरे पर दोषारोपण में नहीं, बल्कि परस्पर समझ में है। भारतीय संस्कार केवल पूजा-पाठ या रीति-रिवाज नहीं हैं, वे जीवन जीने की एक संवेदनशील शैली हैं। यदि उस शैली से करुणा, सम्मान और संवाद निकल जाए तो संस्कार केवल शब्द बनकर रह जाते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि बहुएँ अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने दायित्वों को भी समझें, सासें बदलते समय को स्वीकार करें, और बेटे अपनी मौन की आदत छोड़कर सेतु बनें। तभी घर में फिर से सुबह की चहल-पहल लौटेगी, रसोई में अपनापन खिलेगा और बुज़ुर्गों के चेहरे पर संतोष की मुस्कान आएगी। अन्यथा हम यह प्रश्न पूछते रह जाएँगे—क्या यही भारतीय संस्कारों की बहुएँ हैं? और उत्तर हमारे अपने कर्मों में छिपा होगा।—
डॉ. ऋचा दुबे
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