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"अनागमन का पक्ष"

"अनागमन का पक्ष"

पंकज शर्मा
कभी-कभी
किसी का आना
एक और विदा रच देता है—
जहाँ अपनापन
दावा बनकर नहीं,
घाव बनकर उतरता है।


जो अपने न हो सके,
उनसे उम्मीद की गठरी
दिल ने क्यों बाँधी?
यहीं से
हाथों से फिसलता है दिल,
और हम उसे
भाग्य कहकर चुप हो जाते हैं।


कुछ मुलाक़ातें
इतनी भारी होती हैं
कि स्मृति भी
उन्हें ढोते-ढोते
झुक जाती है—
ऐसे में
न आना ही
सबसे कोमल व्यवहार होता।


करुणा के अभिनय
अक्सर
सुनने की कला भूल जाते हैं;
वे शब्दों का सम्मान करते हैं,
अनुभव का नहीं—
और दिल का फसाना
कानों तक पहुँचकर
अर्थ खो देता है।


दर्द
सबसे ईमानदार भाषा है,
पर उसका व्याकरण
हर कोई नहीं जानता;
जो दिल पर गुजरती है
वही जानता है
कि चुप्पी भी
कितनी मुखर होती है।


हम समझते हैं
दूसरा समझेगा—
यहीं दर्शन चूक जाता है;
क्योंकि अनुभूति
हस्तांतरण की वस्तु नहीं,
वह तो
भोगे बिना
पढ़ी नहीं जाती।


इसलिए
अब शिकायत नहीं,
सिर्फ़ स्वीकार है—
कि हर आगंतुक
आशीर्वाद नहीं होता,
और हर अनुपस्थिति
अभाव नहीं कहलाती।


आज मन
इतना भर आया है
कि रिक्तता भी
पूर्ण लगती है—
जो न मिला
वही शायद
सबसे सच्चा
मिलन था।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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