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राम का बुलावा और बाबर की पुकार

राम का बुलावा और बाबर की पुकार

रचना --- 
                    डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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राम का बुलावा भीतर उठता—शांत, सरल, निष्काम,
सत्य-धर्म की राह पकड़कर ही खुलता है उनका धाम।

पर राजनीति की भीड़ में खड़े, कुछ मनभावन पात्र,
श्रद्धा को मापें अवसर से—हाथ में लेकर पात्र।

कहते—“जब राम बुलाएँगे, तब ही शीश नवाऊँ”,
जैसे भक्ति भी चलती हो, सत्ता की ही धुन गाऊँ।

उधर अतीत का एक प्रतीक—बाबर नामक रूप,
स्वार्थों की आवाज़ बनाकर, करता है विचित्र समूह।

कभी हवाओं में संदेशा, कभी साए की पुकार,
कभी लालच की चादर दे, खींचे अपने द्वार।

टेलीफोन, चिट्ठी, पोस्टें—सब बस रूपक-भेष,
सत्ता के गलियारों में, कब नहीं घूमे “लेश”?

राम पुकारें आत्मा को—ममत्व, सत्य, विवेक,
बाबर पुकारे लोभ को—मत, पद, शोहरत, सेक।

एक बुलाता भीतर की ज्योति—निर्मल, पावन, शांत,
दूजा जगाता लालच को—छोड़ जाए दूरी-आँत।

राजनीति की इस दुनिया में दोनों चलते साथ,
राम बुलाएँ हृदय-पथिक को, बाबर खींचे हाथ।

अंततः चलना किसके पीछे—ये तो मन का काम,
एक राह ले जाती शासन को, दूजी ले जाती राम।
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