"खंडहर में ठहरा हुआ क्षण"
पंकज शर्माएक अनकहा स्पंदन
अस्तित्व की देह में उतर आया—
न कोई पूर्वसूचना,
न कोई प्रतिरोध।
जो दृश्यमान था,
वह भी बिखरा,
और जो अदृश्य था—
वह और गहरे दरक गया।
तब जाना,
विनाश केवल बाहर घटित नहीं होता,
वह भीतर
स्वीकृति की सीमा तक पहुँचकर
पूर्ण होता है।
मन—
अब एक परित्यक्त प्रदेश है,
जहाँ स्मृतियाँ
टूटे स्तंभों की तरह
अपने ही भार से झुकी हैं।
हर याद
अब अनुभूति नहीं,
एक विचार है—
जिसे जीना पड़ता है,
समझा नहीं जा सकता।
समय यहाँ
रुकता नहीं,
बस और अधिक निर्विकार हो जाता है—
मानो कह रहा हो
कि स्थायित्व, केवल एक भाषिक भ्रम है।
मैं मलबा नहीं हटाता,
उसे देखता हूँ—
क्योंकि सृजन
पहले दृष्टि माँगता है,
आशा नहीं।
इस खंडहर में
अब शोक नहीं है,
केवल एक सजग मौन—
जिसमें
मैं स्वयं को
पहली बार
अकेला, और इसलिए
सचेत पाता हूँ।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"
✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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