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ठंड का मौसम, व्यवस्था और मध्यम वर्ग

ठंड का मौसम, व्यवस्था और मध्यम वर्ग

दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |

उत्तर भारत इन दिनों ठंड, कोहरे और शीतलहर की गिरफ्त में है। पहाड़ों से उतरती बर्फीली हवाएँ, मैदानों में पसरा घना कोहरा और दिनभर सूरज का नदारद रहना, यह सब अब सिर्फ मौसम का मिजाज नहीं है, बल्कि आम आदमी के जीवन का स्थायी संकट बन चुका है। पटना सहित उत्तर बिहार में मौसम विभाग द्वारा ‘कोल्ड डे’ घोषित किया जाना इसी कड़ी का एक औपचारिक एलान भर है।

लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ठंड सिर्फ शरीर को ठिठुराती है? या फिर वह जेब, मानसिक शांति और पारिवारिक संतुलन को भी उतनी ही निर्ममता से झकझोरती है?

मौसम विभाग के अनुसार जब न्यूनतम तापमान सामान्य से 4.5°C या अधिक नीचे चला जाता है या अधिकतम तापमान 16°C से नीचे बना रहता है तो उसे ‘कोल्ड डे’ की श्रेणी में रखा जाता है। परंतु यह परिभाषा कागज पर जितनी साफ है, जमीन पर उतनी ही धुंधली।

शहरों में कोहरे को अक्सर रोमांटिक कर दिया जाता है। सुबह की चाय, धुंध में लिपटी सड़कें, धूप की प्रतीक्षा। लेकिन ग्रामीण और कस्बाई भारत के लिए कोहरा का मतलब है रेल और बस सेवाओं का ठप होना। दिहाड़ी मज़दूर का काम पर न पहुँच पाना। फसलों पर पाला पड़ना। सड़क हादसों में बढ़ोतरी। ईश्वरीय संरचना और मौसम विभाग की घोषणा के त्रिस्तरीय चक्रव्यूह में उलझता है मध्यम वर्ग। गर्मी में हीट वेव से, बरसात में हेवी रेन से और सर्दी में कोल्ड डे से। हर मौसम एक चेतावनी लेकर आता है, पर चेतावनी के साथ कोई आर्थिक सुरक्षा कवच नहीं होता है।

भारत का मध्यम वर्ग न तो सरकारी योजनाओं की पहली पंक्ति में है, न ही आपदा के बाद मुआवज़े की सूची में। सर्दी में हीटर, गीजर, ऊनी कपड़े और बच्चों की बीमारियाँ तो गर्मी में एसी, कूलर, बिजली बिल, वहीं बारिश में छत की मरम्मत, नमी से खराब सामान। ऐसी स्थिति में एसी-कूलर की EMI खत्म नही हुई कि गीजर-हीटर सर पर तांडव करने लगता है। यह पंक्ति आज के भारत के शहरी लोगों पर सबसे सटीक बैठता ह। क्योंकि एक औसत मध्यमवर्गीय परिवार 12 महीने, 12 किस्तें, 3-4 मौसम और 6-7 इलेक्ट्रॉनिक उपकरण में उलझा रहता है।

गर्मी में सूती कपड़े राहत देता हैं, लेकिन भारत में सूती कपड़े अभी सांस भी पूरी तरह नहीं ले पता है कि ऊनी जयमाल करने को बेताब दिखती है। यह सिर्फ कपड़ों की बात नहीं है, यह मौसम की अस्थिरता का संकेत है।

उत्तर भारत में सर्दियाँ छोटी पर तीखी होती हैं। गर्मियाँ लंबी और घातक होती हैं। बारिश अनियमित होती है। यह सब क्लाइमेट चेंज का प्रत्यक्ष प्रभाव है। लेकिन इसका बोझ न तो बड़े उद्योग उठाते हैं और न ही नीति निर्माता। यह बोझ उठाता है आम आदमी।

ठंड में सर्दी-खांसी, अस्थमा, हृदय रोग। गरीब के लिए होता है इलाज महंगा, मध्यम वर्ग के लिए बीमा होता है अपर्याप्त। कोल्ड डे का असर सबसे ज़्यादा स्कूल जाने वाले बच्चों, अकेले रहने वाले बुजुर्ग और घरेलू महिलाओं पर पड़ता है। स्कूल बंद? काम बंद? जिम्मेदारियाँ बंद? और कुछ भी नहीं।

मौसम विभाग चेतावनी देता है। प्रशासन अलर्ट रहता है। लेकिन रैन बसेरा अपर्याप्त होता है। अलाव की व्यवस्था सीमित रहती है। बिजली दरें भी यथावत बनी रहती है।

खैर अब ईश्वर ने इस परिवेश में अवतरित किया है तो दोष देकर भी क्या होगा, बस मगन रहना ही मजबूरी है। यह है भारतीय समाज की सबसे गहरी मनोदशा, इसे स्वीकार कर लेना ही बेहतर है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हर मौसम में यूँ ही सहते रहना नियति है? या व्यवस्था से सवाल करना भी धर्म है?

कोल्ड डे आएगा और जाएगा। कोहरा होगा और छटेगा। धूप निकलेगी। लेकिन EMI रहेगी, असुरक्षा रहेगी, मध्यम वर्ग की अदृश्य पीड़ा रहेगी, जब तक कि मौसम नीति में इंसान केंद्र में नहीं होगा और विकास का पैमाना सिर्फ GDP नहीं, बल्कि मानवीय सहनशीलता नहीं बनेगी।

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