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नहीं जा पाए हम कुंभ मेला ,

नहीं जा पाए हम कुंभ मेला ,

चलो चलके संगम नहा लें ।
जीवन भर जीवन के पचड़े ,
प्रेम सरस हम भी बहा लें ।।
देश विदेश आए कुंभ नहाने ,
कितने अभागे हम न जा पाए ।
हृदय के रोगी हुए पड़े हैं हम ,
काव्य रस भी नहीं गा पाए ।।
बनकर रहा अफसोस दिल में ,
चाहकर भी दर्शन नहीं पाए ।
मैं तो नहाने में रह गया भूखा ,
नहीं जाकर बहुत पछताए ।।
फिर पछताए होता ही क्या ,
जब चिड़िया चुग गई खेत ।
खेत हुआ खाली यह तो ऐसे ,
खेत में ही पड़ गया हो रेत ।।
जीवन मेरा रह गया अधूरा ,
अधूरी रह गई मेरी यह आस ।
जीवन मेरा बना पड़ा मायूस ,
कब तन हो जाए नि:श्वास ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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