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"जलदर्पण"

"जलदर्पण"

पंकज शर्मा
शरद की सांझ,
धीरे-धीरे वन की पर्ण-लता पर
एक म्लान दीप्ति बिखेरती हुई
जैसे किसी अनाम स्मृति का आह्वान कर रही हो।
लाल उजास के बीच
प्रकृति ने अपनी आलोक-चादर
मौन में ओढ़ ली है—
मानो जीवन की विरत वीणा
दूर कहीं गुंजित हो उठी हो।


जल-स्तर पर निश्चल आकाश
एक स्वप्निल मंत्र जपता-सा
अविराम फैला है।
बादलों की उदासी
और सूर्य की क्षीण दीप्ति
एक ही रेखा में बँधकर
अनंत का स्पर्श रचती प्रतीत होती है।
धरती और गगन—
दोनों जैसे
अपने ही प्रतिबिंब में विलुप्त।


दिवा का अंतिम उच्छ्वास
पीत-गुलाबी वितान में
धीरे से ठहर गया है।
उस की मधुर ऊष्मा
जल की सतह पर
मानो किसी छिपे संगीत की कंपन बन
समय की थकित धड़कन को
और भी गहन कर देती है।
क्षण की करुण लय में
बीतना भी एक सौंदर्य है।


धरा की जड़ें
जब जल में आँकित हो उठती हैं,
तब लगता है—
जग अपने ही विलोम रूप में
एक नया आलंबन खोज रहा है।
ऊपर और नीचे का भेद
दृष्टि का केवल मायाजाल रह जाता है।
इस उलट संसार में
वस्तुओं का सत्य
धीरे-धीरे अपने आप खुलने लगता है।


गिरे हुए पत्ते
राजमुकुट के बिखरे रत्न-से
नीरव घास पर सोए हैं।
उनकी पीड़ा में
किसी विलुप्त गौरव की गंध है—
और किसी शाश्वत क्रम का बोध भी।
जल-आकाश के संधि-क्षण में
जीवन का चक्र
सौम्य मौन में कह उठता है—
"अंत ही नव आरंभ है।"


इस स्थिर जल के हृदय में
जब मन अपना रूप देखता है,
तो उसे प्रतीत होता है—
मानो किसी अदृश्य करुणा ने
प्रकाश का हाथ बढ़ा
उसकी थकी चेतना को सहला दिया हो।
यहीं, इस मधुर शांति की गहराई में
द्वैत गलकर एक हो जाता है,
और जलदर्पण की उज्ज्वल मिट्टी में
अनंत का सत्य
धीमे से खिल उठता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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