“अस्तित्व का देन–लेन”
पंकज शर्माअस्तित्व ने मुझे बाँह पकड़कर लौटाया—
कभी शीत की फुसफुसाहट में,
कभी अग्नि की अनमनी लपटों में—
कि जीवन एक ऋतु नहीं,
बल्कि अनगिनत अनुभवों की परिक्रमा है।
हर मिलन—एक अनदेखे शिल्पी का काम,
जो हृदय की दीवारों पर
निशब्द छिन्न-भिन्न रेखाएँ बनाता है।
और हर वियोग—एक मौन ऋषि,
जो स्मृति को तपाकर अर्थ में बदल देता है।
धीरे-धीरे जाना—
स्वामित्व एक भ्रम है,
जैसे जल अपना नहीं,
फिर भी प्यास का उत्तर वही हो;
और जो मेरा था, वह भी समय के गर्भ में
सिर्फ अनुभव बनकर रह जाता है।
कुछ चेहरे आए—
जैसे शीतल चन्द्रिमा थके पथिक पर उतर आए;
और कुछ—
धधकती बिजली की रेखा जैसे,
क्षणभर के लिए उजाला देकर
प्रिय अंधकार भी छीन ले गए।
देन की क्षमता मैंने उन क्षणों में पाई
जब भीतर का कोषरा रिक्त पड़ चुका था;
और प्राप्ति की कला उस वक्त सीखी
जब अनजान करुणा—
बिना किसी वाणी के—
कंचन-तारों की तरह भीतर गिरने लगी।
समझा—
अस्तित्व का कोई भी उपहार
विकट या व्यर्थ नहीं होता;
हम सब एक व्यापक प्रवाह के कण हैं,
जहाँ देने वाला और पाने वाला
एक ही अनाम दिशा में विलीन हो जाते हैं।
छूटना भी एक प्रकार का उत्थान है—
जैसे वृक्ष पतझड़ से गुजरकर
अपने ही भीतर नवांकुर खोज लेता है।
और पाना—
कभी-कभी बस इतना कि
एक सत्य तुम्हें भीतर से हल्का कर दे।
इस महायात्रा ने सिखाया—
कि जीवन का सार न लेने में है, न देने में,
बल्कि उस सूक्ष्म संतुलन में—
जहाँ आत्मा एक नदी की तरह
अपने ही तटों को रचती, मिटाती,
और पुनः रचती चली जाती है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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