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जहाॅं संस्कृत नहीं

जहाॅं संस्कृत नहीं

संस्कृत नहीं तो संस्कृति कैसे ,
संस्कृति नहीं तो संस्कार कैसे ?
संस्कार नहीं तो आचार नहीं ,
आचार नहीं तो व्यवहार कैसे ?
संस्कृत राष्ट्र का बहुमूल्य धन ,
ढूॅंढ़ दिल को तुम कर खनन ।
संस्कृत नहीं ये संस्कृति कहाॅं ,
करके देख ले मन से मनन ।।
संस्कृत हनन है संस्कार हनन ,
संस्कार हनन है आचार हनन ।
आचार हनन ही सरसता हनन ,
सरसता हनन व्यवहार हनन ।।
जिसको नहीं आचार से प्रीत ,
वही कहता संस्कृत को मृत ।
जीवन जिसका जिंदा मृत हो ,
वह क्या जाने डालडा व घृत ।।
संस्कृत को जिसने मृत कहा ,
संस्कृति ही उसकी ये मृत है ।
संस्कार जिसका हुआ है मृत ,
माता पिता भी नहीं अमृत है ।।
संस्कृत मृत तो संस्कृति मृत ,
संस्कृति है सच्चा जीवन वृत्त ।
संस्कृति बिन जीवन मरा पड़ा ,
संस्कृति बिन जीवन अपशिष्ट ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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