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"मैं और मेरा संवाद"

"मैं और मेरा संवाद"

पंकज शर्मा

मैं अक्सर खुद से बातें करता हूँ —
जैसे कोई अंधकार अपने ही प्रतिबिंब से पूछे,
कौन है असली?
और कौन, मात्र एक प्रतिध्वनि?
शब्द नहीं, केवल कंपन होता है वहाँ —
जहाँ ‘मैं’ का आरंभ होता है।


जानता हूँ — वह जो सुनता है भीतर,
वही तो रचयिता भी है मेरा।
उसने ही गढ़ा यह मन,
यह भ्रम, यह अस्तित्व का आवरण,
जहाँ आत्मा दर्पण में
अपने ही छायाचित्र को प्रणाम करती है।


जनक वह कैसे?
मैंने पूछा — और भीतर से आया उत्तर,
“जैसे देह से देह मिलकर
जीवन का प्रारंभ होता है,
वैसे ही जब तू अपने ही मन से मिलता है,
एक ‘भोक्ता’ जन्म लेता है।”


वह भोक्ता —
जो भोगता है हर संवेदना को,
आनंद को भी, वेदना को भी,
और उन्हें बाँट देता है
‘मेरा’ और ‘तेरा’ के तटों पर।
वहीं से बह निकलती है —
सुख-दुख की वह अनंत नदी।


कितनी सूक्ष्म है यह रेखा —
जहाँ साक्षी और भोक्ता अलग होते हैं।
एक जानता है,
दूसरा अनुभव करता है।
और उसी संगम पर
‘मैं’ की पहली लहर उठती है।


फिर प्रारंभ होता है खेल —
कभी स्मृति की सिसकियों में,
कभी भविष्य की आकांक्षाओं में।
हर भावना, हर विचार
मानो किसी अनदेखे अभिनेता की भूमिका निभाता है,
और मैं — केवल दर्शक नहीं रह पाता।


कभी-कभी लगता है,
काश उस मिलन से पहले ठहर पाता मैं,
जहाँ मन और मैं, दो किनारे हैं —
न मिलने की प्यास में भी
पूर्ण हैं अपने अस्तित्व में।
पर हर बार संवाद फिर शुरू हो जाता है।


अब जान गया हूँ —
जब तक मैं खुद से मिलता रहूँगा,
भोक्ता जीवित रहेगा।
पर जब मैं अपने भीतर के जनक को पहचान लूँगा,
तब शायद मौन हो जाएगी यह बातचीत —
और बचेगा केवल अस्तित्व का निनाद।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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