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सत्ता का नशा

सत्ता का नशा

✍️ *डॉ. रवि शंकर मिश्र “राकेश”*
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कुर्सी की दौड़ या
देश की पीड़ा का है व्यापार?


झंडे के नीचे सौदे होते,
नारे बिकते बाज़ारों में —
नीति और नीयत की गंगा
गंदे नालों के धारों में।
वोटों की थाली में
विभाजन का प्रसाद तैयार!
कुर्सी की दौड़ या
हम सबकी सोई हुई पुकार?
देश की पीड़ा का है व्यापार?


जनता भूखी पेट,
और नेता थाली में सोना खाते,
नारे लगते "विकास" के,
ठेकेदार महलों में मुस्काते।
सड़कें टूटी, सपने फूटे,
बस भाषणों का श्रृंगार —
कुर्सी की दौड़ या
सत्ता का पवित्र व्यवहार?
देश की पीड़ा का है व्यापार?


संविधान की शपथों में भी
गूंजे दल का जयकार,
धरना, हड़ताल, गठबंधन –
सब सत्ता के संस्कार।
ईमान बिके औने-पौने,
नीति बने अख़बार की ख़बर
कुर्सी की दौड़ या
अंधी भीड़ का त्यौहार?
देश की पीड़ा का है व्यापार?


कभी धर्म के नाम पे बंटते,
कभी जात की राख में जलते,
राष्ट्रभक्ति की ओट में छिपे
वोटों के सौदागर पलते।
तख्त मिले तो “जनसेवक”,
छूटे तो “बलिदान” का प्रचार!
कुर्सी की दौड़ या
हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली बेकार?
देश की पीड़ा का है व्यापार?


हर पांचवें साल
फिर वही चेहरों का अखाड़ा,
फिर वही झूठे वादों का
सजता नया पिटारा।
जनता भूलती इतिहास,
सत्ता लिखती समाचार —
कुर्सी की दौड़ या
हमारी सोच का बंजर संसार?
देश की पीड़ा का है व्यापार? --- --- --- --- --- --- ---
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