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चेहरे पर चेहरा चिपकाए घूम रहे बागड़ बिल्ला

चेहरे पर चेहरा चिपकाए घूम रहे बागड़ बिल्ला

डा रामकृष्ण मिश्र 
चेहरे पर चेहरा चिपकाए घूम रहे बागड़ बिल्ला
नंगे नाच रहे चमगादड़  चौराहे खुल्लम खुल्ला।। 

स्यार मान्द से निकल कर रहे जंगल की पहरेदारी
और भालुओं की बंदर से खूब निभ रही है यारी। 
भूखा शेर चवाने निकला है घासों की टोह में ं
पत्थर सा जमने वाला है पानी वाला बुलबुल्ला।। 

खड़े किये पेड़ों ने अपने हाथ न धूप सहेंगे अब
अपनी जाति रही है शोषित  हम हड़ताल करेंगे सब
गया जमाना परंपरा का नई  क्रांति लाएँगे हम
नही हवा पानी चाहेंगे‌ अब खाएँगे रसगुल्ला  ।। 

नदियाँ‌ जो ढौती आई हैं जलधाराएँ‌‌ सदियों से
मौन साध अनसन पर बैठीं नारे फुदके गलियों से। 
धमका रहे पहाड़ हवाओं को टेरिफ  देना होगा
मुर्गे ही देंगे अजान अब नहीं कहीं कोई मुल्ला‌।।
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