“शब्दों का अनावृत सत्य”
पंकज शर्मामैं शब्दों का साधक हूँ—
जो दिखता है, उसे लिखता नहीं,
जो नहीं दिखता, उसी की परछाईं पकड़
काग़ज़ पर टांक देता हूँ।
यथार्थ मुझे पुकारता है,
पर उसकी हर पुकार में
एक अनसुना रहस्य गूँजता रहता है।
कविता, तुम सदा वेश्टित हो—
कभी प्रकाश में ढँकी,
कभी अंधकार में विकसित।
तुम्हारे आवरणों में
एक स्थिर, प्रच्छन्न सत्य
धीमे-धीमे अपना शिल्प गढ़ता है।
मैं सत्य लिखने निकलता हूँ,
पर हर शब्द, हर मोड़ पर
वह स्वयं को बदल लेता है।
लिखते-लिखते मुझे लगता है—
झूठ शायद मेरे भीतर था,
और सत्य, कविता,
तुम्हारे शीतल स्पर्श में छिपा।
तुम छल करती हो,
पर वह छल भी किसी दीक्षा-सदृश—
धोखा नहीं, दिशा है;
जहाँ भ्रम टूटता नहीं,
केवल रूप बदलता है
और अर्थ की गहराइयाँ
एक-एक कर उजागर होती हैं।
मैं दृष्टा हूँ,
पर दृष्टि की सीमाएँ जानता हूँ।
तुम अनिर्वचनीय हो—
अभ्रांत भी, पर अपरिभाषित भी;
तुम्हारे भीतर का भारहीन सत्य
जितना पकड़ा जाता है,
उतना ही दूर खिसक जाता है।
तुम्हारी प्रत्येक पंक्ति
एक चक्र की तरह लौट आती है—
प्रारंभ की ओर,
अर्थ की ओर,
उस ओर जहाँ अस्तित्व
अपने ही अनुगूँज में
स्वयं को पहचानता है।
मैं सृजक हूँ,
पर सृजन मेरा नहीं—
वह तो तुम्हारी देह में
छुपे शब्दों का वसीयतनामा है,
जिसे मैं केवल
स्वर देकर मुक्त करता हूँ।
और अंत में, कविता,
तुम ही मेरी दिशा बन जाती हो—
आवरणों से परे,
पर उन्हीं में बसे सत्य की ओर।
तुम्हारा वेश्टित यथार्थ
मुझे छलता नहीं—
बल्कि मुझे निरंतर
कुछ और, कुछ गहन,
कुछ अनूठा बना जाता है।
. ✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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