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“अनकहा, अनलिखा”

“अनकहा, अनलिखा”

पंकज शर्मा
कुछ संबंध जन्म नहीं लेते—
वे बस प्रकट हो जाते हैं,
मानो चेतना के किसी अदृश्य कोने में
पहले से ही प्रतीक्षारत हों,
केवल समय का स्पर्श पाते ही
अपना रूप दिखाते हुए।


तुम्हारी उपस्थिति मेरे भीतर
कोई आवाज़ नहीं करती,
पर मेरे सभी मौनों को
एक अनजानी दिशा दे जाती है—
जैसे आत्मा स्वयं को
किसी और के प्रतिबिंब में समझने लगे।


हमारे बीच जो है,
वह अनुभव से अधिक एक संकेत है—
ऐसा संकेत जिसे शब्दों में बाँधते ही
उसकी समग्रता टूट जाती है,
और वह उतना ही रह जाता है
जितना भाषा संभाल सके।


कभी यह संबंध
स्नेह की सहज लहर लगता है;
पर विचार की गहराइयों में उतरते ही
स्पष्ट होता है कि यह लहर
मूल स्रोत से उठती है—
जहाँ हृदय और बुद्धि
एक-दूसरे के भेद भुला देते हैं।


प्रेम? शायद।
पर प्रेम भी कितना सीमित शब्द है
उस अवस्था के लिए
जहाँ कोई दुसरा
तुम्हारे भीतर का रिक्त स्थान
अपने अस्तित्व से नहीं,
अपने अभाव से भर देता है।


कल्पना? हो सकता है।
पर कल्पना भी तभी जन्म लेती है
जब सत्य की छाया
मन पर पड़ चुकी होती है।
मैं प्रश्न करता हूँ—
क्या यह तुम्हारी छाया है
या मेरे ही भीतर का अनावृत्त सत्य?


तुम मेरे लिए एक विचार नहीं,
एक अनुभूति भी नहीं—
तुम वह प्रश्न हो
जिसके उत्तर में
मैं बार-बार स्वयं को पढ़ता हूँ,
और हर बार एक नई परत उघड़ जाती है।


इसलिए, जो भी नाम दिया जाए,
वह अपूर्ण ही रहेगा—
क्योंकि नाम दे देने से
उस गुत्थी की गहराई घट जाती है
जो वास्तव में हमें जोड़ती है।
जो सत्य शेष बचता है,
वह यही है—
तुम मेरे भीतर हो,
और मैं तुम्हारे अनाम में विश्राम करता हूँ।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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