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वय की स्मृतियाँ आ कर

वय की स्मृतियाँ आ कर

डा रामकृष्ण मिश्र 
वय की स्मृतियाँ आ कर
नूतन आशाएँ दे जातीं
बस ,चुफचाप मधुर अनुभव
अपनापन परचम लहरातीं।।


कैसे अथ से‌ शून्य‌ शिखर तक
राह टटोली गई‌ अपरिचित
शूल -फूल के संघर्षों ने
साहस रचे विशेष अपरिमित।
श्रमसीकर की साँसें अपनी
श्वेत पताकाएँ लहराती।।


किसने कहा बर्फ में केवल
शीतलता का दंभ पिघलता
अनवधानता में पैरों का साहस
अपने आप फिसलता।
दृढता भी विपरीत हवा में ं
स्वयं पताकाहै फहराती।।


बहुत दूर जानेवालों से
अभी लक्ष्य क्यों पूछा जाए
चाहे षटरस भोज्य मिले या
जीवन हित कुछ छूछा खाए।
सत्य कल्पना के अंतर में
नवल प्रेरणा है कुंभलाती‌।। ११४

लेखक डा रामकृष्ण मिश्र , गया जी
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