"सीता राम विवाहोत्सव"
पंकज शर्मा
जनकपुर की गलियों में आज,
उतरी है मधुर उजास रे—
राम चले मण्डप की ओर,
संग चलती शान्त सुवास रे।
कोमल कपोल, मृदु मुस्कान
देखे जो सब होत पुलकाय,
मधुबन-सा छा जाता मन,
जब चरण-ध्वनि धीरे आए।
सुन री सखी, आज गगन में
कैसी सुधि–सी छा गई,
सीता की शीतल छवि देख
वसुधा भी मुस्का गई।
मृदुल नेत्र अभ्रक से निर्मल,
शरद–ज्योति-सी देह दमक,
उनके चलने से पवन में
फूलों की-सी फैलत महक।
राम रूप किरणों-सा धीर
मन को अँजोर भिगोता है,
नेत्रों में झरना-सा प्रेम
पल में सब कुछ संजोता है।
और उधर जनकनंदिनी,
लाज भरी धीमी मुस्कान—
जैसे चन्द्रकिरण चुपके से
खिलने आई हो मैदान।
सखी! सुन श्रृंगार की छन-छन,
मेंहदी की रम्य सुवास,
शंखों की गूँजें जगभर में,
फूलों की उड़ती परछाइयाँ।
सीता चली मण्डप की ओर
पग-पग जैसे काव्य खुला,
पीछे-पीछे वसन्त स्वयं
उनके संग-संग चलता मिला।
राम के कंधों पर शोभित
धैर्य-दीप्त वनमाल हरी,
कुंडल झिलमिल बोले धीमे,
"आज घटित होगी प्रीति भरी!"
और इधर कर-कमलों में
सीता की कंपित मीठी थरथर—
मानो स्वयं प्रणय की बेला
भरने को है सुन्दर-अंतर।
मिलन-क्षण आया रे सखि,
जब दोनों आमने-सामने—
एक ओर मर्यादा का तेज,
एक ओर विनय की पावन गाथा।
माला पड़ी राम के उर पर
जैसे समय थिरक उठे,
सीता की पलकों ने उठकर
अमल प्रेम के दीप जले।
अग्नि साक्षी, मन्त्रों की धुन,
दोहा-चौपाई सी गूँज,
धरती बोली—"आज हुआ
नव धर्मराग का मधुर संयोग!"
सात पदों के संग-संग
दो जीवन की राह मिली,
धीर-वीर पुरुषोत्तम हित
सीता की लाज सँवर चली।
गूँज उठी जनकपुरी सारी—
"जय सिया-राम! जय-जय!"
प्रेम, तपस्या, मर्यादा का
आज हुआ पावन उदय।
गीत यह विवाहोत्सव का
सृष्टि-स्मृति में गुँजित रहे,
सीता–राम मिलन की छवि
युग-युग तक अमृत बहे।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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