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देवउठनी एकादशी: योगनिद्रा से जागरण और तुलसी विवाह

देवउठनी एकादशी: योगनिद्रा से जागरण और तुलसी विवाह

सत्येन्द्र कुमार पाठक ✨
सनातन धर्म संस्कृति में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का विशेष महत्व है। इसे देवउठनी एकादशी, देवोत्थान एकादशी, या प्रबोधिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह वह शुभ दिवस है जब सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु चार मास की लंबी योगनिद्रा से जागृत होते हैं। इस एकादशी के साथ ही समस्त मांगलिक कार्यों, विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश आदि की पुनः शुरुआत हो जाती है, जिनका आरंभ चातुर्मास में वर्जित होता है। इस महापर्व के ठीक अगले दिन या एकादशी के दिन ही तुलसी विवाह का आयोजन भी किया जाता है, जो इस उत्सव की शुभता और पवित्रता को कई गुणा बढ़ा देता है देवउठनी एकादशी का उल्लेख पद्म पुराण और स्कन्द पुराण जैसे पवित्र ग्रंथों में मिलता है, जो इसके ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व को स्थापित करता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी (देवशयनी एकादशी) से कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तक क्षीर सागर में शयन करते हैं। यह चार महीने की अवधि चातुर्मास कहलाती है, जिसमें सृष्टि का संचालन भगवान शिव और अन्य देवी-देवता संभालते हैं।
एक प्रमुख कथा के अनुसार, भगवान विष्णु ने राजा बलि के यज्ञ में वामन अवतार लेकर तीन पग में उनका सब कुछ मांग लिया था। तीसरे पग के लिए स्थान न होने पर राजा बलि ने अपना सिर आगे कर दिया। उनकी दानशीलता से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें पाताल लोक का अधिपति बनाया और साथ ही यह वरदान दिया कि वह प्रतिवर्ष चार माह के लिए उनके (बलि के) यहाँ निवास करेंगे। इसी कारण इन चार महीनों में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागृत होते हैं।इसी दिन से पृथ्वी पर शुभता और ऊर्जा का प्रवाह पुनः तीव्र हो जाता है, क्योंकि सृष्टि के पालक के जागने के साथ ही समस्त देवताओं की शक्तियाँ भी जागृत हो जाती हैं। इसलिए यह पर्व 'देवों के उठने' का उत्सव है।सनातन संस्कृति में तुलसी (बेसिल) को केवल एक पौधा नहीं, बल्कि एक पूज्य देवी का स्वरूप माना जाता है। इन्हें वृंदा नाम से भी जाना जाता है, जो देवी लक्ष्मी का ही एक रूप हैं।तुलसी को भगवान विष्णु की प्रियतमा माना जाता है। मान्यता है कि तुलसी पत्र के बिना भगवान विष्णु किसी भी भोग या पूजा को स्वीकार नहीं करते।तुलसी में साक्षात माता लक्ष्मी का वास होता है, इसलिए जिस घर में तुलसी की नियमित पूजा होती है, वहाँ सुख, समृद्धि और शांति का वास होता है।तुलसी का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक भी है। इसे आयुर्वेद में औषधीय गुणों से भरपूर माना गया है, जो कई रोगों में लाभदायक है।कार्तिक शुक्ल एकादशी या द्वादशी को शालिग्राम (भगवान विष्णु का पाषाण स्वरूप) के साथ तुलसी का विवाह एक प्रतीकात्मक विवाह समारोह के रूप में आयोजित किया जाता है। यह विवाह समारोह भक्तों द्वारा कन्यादान की तरह किया जाता है, जिसे अत्यंत पुण्यकारी माना गया है।।यह विवाह प्रकृति और पुरुष तत्व (तुलसी और विष्णु) के दिव्य मिलन का प्रतीक है।तुलसी विवाह करवाने से वैवाहिक जीवन में प्रेम और सौहार्द बढ़ता है और संतान सुख की प्राप्ति होती है।इस अनुष्ठान के साथ ही विवाह आदि सभी शुभ और मांगलिक कार्यों की पुनः शुरुआत होती है।
जेउष्ठान या देवउठनी एकादशी वह महत्वपूर्ण पड़ाव है, जो चातुर्मास की अवधि को समाप्त करता है। यह दिन सभी प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक शुभ कार्यों की शुरुआत के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना जाता है, जिसे अबूझ मुहूर्त भी कहते हैं।: इस दिन से विवाह, सगाई, गृह प्रवेश, नए व्यापार का शुभारंभ, मुंडन जैसे सभी मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं, जो चार महीने से बंद थे। भक्तगण इस दिन भगवान विष्णु को निद्रा से जगाने के लिए विशेष पूजन करते हैं। घर के द्वार और पूजा स्थल पर गन्ने, सिंघाड़े और अन्य मौसमी फलों से मंडप सजाया जाता है। रात्रि में जागरण और दीपदान का विशेष महत्व है। भक्त भजन-कीर्तन और मंत्रों के उच्चारण से भगवान विष्णु का आह्वान करते हैं और उन्हें निद्रा से जागृत होने की प्रार्थना करते हैं।योगनिद्रा का अर्थ केवल साधारण नींद नहीं है; यह भगवान विष्णु की एक विशेष आध्यात्मिक योगनिद्रा वह अवस्था है जिसमें भगवान विष्णु भौतिक रूप से शयन करते हुए भी ब्रह्मांड के सूक्ष्म संचालन को जारी रखते हैं। यह अवस्था उनकी अनंत शक्ति और चेतना का प्रतीक है, जो सृष्टि के संतुलन को बनाए रखती है।यह हमें सिखाता है कि जीवन में कर्म के साथ-साथ विश्राम और आत्मनिरीक्षण भी आवश्यक है। चार माह का चातुर्मास काल भक्तों को त्याग, तपस्या और आत्म-शुद्धि का अवसर देता है, जब वे भौतिक कार्यों से हटकर आध्यात्मिक उन्नति पर ध्यान केंद्रित करते हैं।: कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु के जागने का तात्पर्य यह है कि अब वह सृष्टि के प्रत्यक्ष संचालन को पुनः अपने हाथों में ले लेते हैं, जिससे धर्म, कर्म, और शुभता का प्रभाव पृथ्वी पर बढ़ जाता है।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे देवउठनी एकादशी, जेउष्ठान और प्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है, सनातन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह भगवान विष्णु की योगनिद्रा से जागृति का, तुलसी माता और शालिग्राम के दिव्य विवाह का और समस्त शुभ कार्यों के पुनः आरंभ का उत्सव है। यह पर्व जीवन में धर्म, आस्था, पवित्रता, और उत्साह के संचार का प्रतीक है, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।
देवउठनी एकादशी और तुलसी का महत्व युगों-युगों से चला आ रहा है, लेकिन इसे मनाने के तरीके और इसका प्रचार-प्रसार प्रत्येक युग की परिस्थितियों के अनुसार थोड़ा-बहुत बदलता रहा है। इसका महत्व धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक तीनों ही दृष्टियों से अपरिवर्तित रहा है।
देवउठनी एकादशी (कार्तिक शुक्ल एकादशी) शीतकाल की शुरुआत का प्रतीक है, और इस समय तुलसी विवाह की परंपरा का वैज्ञानिक आधार बहुत गहरा है:: तुलसी में एंटी-बैक्टीरियल, एंटी-फंगल और एंटी-वायरल गुण प्रचुर मात्रा में होते हैं। सर्दियों की शुरुआत (देवउठनी का समय) में वातावरण में संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए तुलसी का सेवन और उसकी पूजा स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक मानी जाती है।: तुलसी का पौधा चौबीसों घंटे ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है और कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों को अवशोषित करता है। कार्तिक मास के बाद शादियों जैसे समारोहों में भीड़भाड़ बढ़ने से पहले घर के वातावरण को शुद्ध रखने में तुलसी सहायक है।: तुलसी विटामिन-सी, कैल्शियम, जिंक और आयरन का भंडार है। इसका नियमित सेवन सर्दी-जुकाम, खांसी, दमा और तनाव को कम करने में सहायक है। चातुर्मास की समाप्ति और देवउठनी एकादशी यह संकेत देती है कि वर्षा ऋतु अब समाप्त हो चुकी है और शरद ऋतु/शीत ऋतु का आगमन हो गया है। तुलसी विवाह इस मौसम के बदलाव को स्वीकार करने और नए मौसम के लिए शारीरिक और सामाजिक रूप से तैयार होने का प्रतीक है।
सनातन धर्म संस्कृति के अनुसार, यद्यपि भगवान विष्णु की लीलाएँ हर युग में अलग-अलग रहीं, लेकिन उनके शयन (योगनिद्रा) और जागरण की तिथि का महत्व समान रहा है।।सतयुग में योगनिद्रा को परमात्मा की महाचेतना का रूप माना जाता था। एकादशी का व्रत आत्मिक शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन था। तुलसी, जिसे वृंदा के नाम से जाना जाता था, को साक्षात मोक्षदायिनी और देवी लक्ष्मी का अभिन्न अंग माना गया। उनका सम्मान प्रकृति और चेतना के संतुलन के रूप में होता था।त्रेतायुग (धर्म और कर्म का समन्वय) इस युग में व्रतों और अनुष्ठानों का महत्व बढ़ा। भगवान विष्णु के राम अवतार के समय एकादशी व्रत को संकट निवारण और धर्म स्थापना के लिए किया जाता था। तुलसी का उपयोग पूजा और औषधि दोनों रूपों में होने लगा। यह माना जाता था कि तुलसी के दर्शन मात्र से पापों का शमन होता है। द्वापरयुग में भगवान कृष्ण के भक्ति युग में, एकादशी व्रत भक्ति और प्रेम का माध्यम बन गया। देवउठनी पर भगवान विष्णु के सगुण रूप का आह्वान और स्तुति प्रमुख थी। तुलसी-शालिग्राम विवाह की कथा और परंपरा इसी युग में जन-जन में लोकप्रिय हुई। तुलसी को भगवान कृष्ण की प्रिय सखी और भक्त के रूप में पूजा जाने लगा। कलियुग में, देवउठनी एकादशी एक प्रमुख लोकपर्व और सांस्कृतिक उत्सव है। इसे विवाहों की शुरुआत के रूप में देखा जाता है। व्रत, कथा श्रवण, और सामूहिक पूजन का प्रचलन बढ़ा है। तुलसी विवाह को कन्यादान के समान पुण्यदायी माना जाता है। इसे घर-घर में एक मांगलिक समारोह की तरह मनाया जाता है, जिसमें गन्ने का मंडप, पारंपरिक गीत और भोजन शामिल होता है। यह पारिवारिक एकता और सौभाग्य का प्रतीक है।देवउठनी एकादशी और तुलसी का महत्व युगों-युगों से चला आ रहा है, जो हमें धार्मिक आस्था, वैज्ञानिक समझ और सामाजिक परंपराओं के समन्वय का संदेश देता है। यह पर्व केवल देवताओं के जागरण का नहीं, बल्कि मानव जीवन में नव ऊर्जा, शुभता और स्वास्थ्य के आगमन का प्रतीक है।

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