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"उलझनों का व्याकरण"

"उलझनों का व्याकरण"

पंकज शर्मा
वक्त की धूल में दबी राहें
कभी चमकती हैं, कभी धुँधला जाती हैं,
मानो कोई अनदेखा हस्ताक्षर
हर मोड़ पर नया अर्थ लिख जाता हो।


जिंदगी––
एक अधखिली कली की तरह
अपने भीतर अनगिनत तहों में
अनजाने सवाल समेटे रहती है।


और उम्र––
शांत, किन्तु कठोर शिक्षक-सी,
हर उत्तर को
एक नए प्रश्न के साथ परखती चलती है।


कभी लगता है
हम अपने ही दिनों की छाया ढोते हुए
किसी अनाम मंज़िल की ओर
धीमे कदमों से बढ़ते जा रहे हों।


परन्तु वही कदम
कभी अचानक रुककर
एक अनपहचाने सुकून से पूछते हैं—
क्या समझना सच में ज़रूरी है?


उलझनें
कभी बिखरी हुई चिंगारियों-सी,
कभी मन की खिड़कियों पर जमी
पुरानी धूल की परतें—
जो हटती नहीं, पर चमकती बहुत हैं।


उम्र, अपनी थमी हुई नदियों में
बीते समय के पत्थर पलटती हुई,
हमें वही दिखाती रहती है
जो देखने से हम हमेशा डरते आए हैं।


और अंत में
सब कुछ लौटकर वहीं आ जाता है
जहाँ से यात्रा आरम्भ हुई थी—
हम, वक्त, और अनकही पहेलियाँ
जो अपने हल खुद ही चुन लेती हैं।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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