“अदृश्य सहयात्री”
कुछ रिश्ते —समय की देहरी पर
ठिठके हुए कदमों जैसे,
जिनकी चाल थम जाती है
पर आवाज़ नहीं।
वे हमारे भीतर
धीरे-धीरे बस जाते हैं —
कभी एक गंध बनकर,
कभी किसी संध्या की
अधूरी बातचीत बनकर।
हम भूलना चाहते हैं,
पर वे याद नहीं बनते,
साँसों की तरह
साथ चलते हैं —
अदृश्य, अपरिभाष्य,
फिर भी अटूट।
कभी किसी गीत की
पंक्ति में झिलमिलाते हैं,
कभी किसी पुराने पत्र से
झरते अक्षरों में बोल उठते हैं।
वे लौट आते हैं —
हर बार एक नए रूप में।
शायद यही है
संबंधों का अंतिम सत्य —
साथ नहीं चलते,
फिर भी छोड़ते नहीं,
हमारे भीतर,
हमसे भी गहराई में
अपना घर बना लेते हैं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
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