बेटी की बिदाई के क्षण
✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"नयन कहें जो बात न बोले,
भीगा हर अनुमोदन है,
सज धज कर चलने को बेटी,
मन में फिर भी कंपन है।
अँगना से आँचल की खुशबू,
पग–पग पर रुक जाती है,
विदा की वेला आते ही बस,
पलकों पर नमी छाती है।
मां के आँसू, बाप का साहस,
सब अपना-अपना किरदार,
धड़कन में उलझी दुआएँ,
संग चलने को तैयार।
थरथर हाथों से परशीदी,
माथे की वह कोमल रेख,
सुख-सागर का द्वार खुले,
ये ही मन की एक प्रार्थन लेख।
द्वार खड़ा है सपनों वाला,
जीवन की नई राह लिए,
बेटी बढ़ती धीरे-धीरे,
अपने दिल की चाह लिए।
छूट रहे हैं गीत पुरखों के,
स्मृतियों के संगम भी,
पर रिश्तों की ये डोर सदा,
रहती है मन में गम भी।
बिदाई का क्षण—एक बनती,
हँसी-आँसू की रीत नई,
घर-आँगन की धड़कन ले कर,
बेटी चली दिशाएँ कई।
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