बिहार चुनाव परिणाम
लेखक मनोज मिश्र इंडियन बैंक के अधिकारी है|बिहार चुनाव के प्रत्याशित परिणाम भी अप्रत्याशित रूप में आये और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अपनी आशा से भी अधिक सीटें जीतीं। इतनी बड़ी जीत का दावा अमित शाह भी नहीं कर रहे थे। उनका भी अनुमान 160 से ज्यादा का था। अब प्रश्न यह है कि ऐसा हुआ कैसे। जमीन पर जो गठबंधन टीवी चैनल के माध्यम से मजबूत दिख रहा था उसका शीराज़ा कैसे बिखर गया। हम सबने देखा की तेजस्वी की सभाओं में बहुत भीड़ उमड़ रही थी। राहुल की यात्रा में भी लोगों की उपस्थिति अच्छी खासी थी। पर वास्तविकता क्या थी। क्या ये भाड़े के लोग थे या अति उत्साही कार्यकर्ता जो हर जगह पहुंच रहे थे। दरअसल मोटे शब्दों में देखें तो इन अति उत्साही कार्यकर्ताओं का व्यवहार और उस पर तेजस्वी राहुल की सधी हुई चुप्पी ने राजद का खेल बिगाड़ा। कट्टा, बम, बंदूक, हथियार की बोली और धमकियां इन कार्यकर्ताओं के मुंह से ऐसे झड़ रहे थे मानो जंगल राज कायम करना उनका अधिकार हो। न चाहते हुए भी जनता का ध्यान लालू राज पर चला गया। जिन लोगों ने वो दौर देखा था वो तो सिहरे ही वो भी जिज्ञासु हो उठे जो उस राज के बाद पैदा हुए थे। सोशल मीडिया के जमाने मे सूचनाओं की उपलब्धता सरल है। ओसामा शहाब को टिकट देने के फैसले ने इस धारणा को पुख्ता कर दिया कि राजद की सरकार का बनना बिहार को उसी भयावह दौर में फिर से ले जाने की साजिश है। इसीलिए बिहार की महिलाओं ने इस चुनाव में बहुत बढ़ चढ़ के हिस्सा लिया। एक अन्य कारण चुनाव से पहले महिलाओं के खाते में 10 हजार रुपये पहुंचना भी रहा। दरअसल नीतीश सरकार अपने सभी कार्यकालों में महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रयास करते रही है। चाहे लड़कियों को साईकल देना हो या छात्रवृत्ति, उनको 33% आरक्षण देना हो या सिपाही भर्ती में स्थान, सभी कुछ लोगों ने अपनी आंखों से देखा था अतः यह 10 हजारी किश्त उनके विश्वास को पुख्ता कर गयी कि नीतीश सरकार अपने वादे पूरे करेगी। कहने को तो तेजस्वी यादव ने भी जनवरी अब हर महिला को 30 हजार रुपये देने की बात की थी पर ये भविष्य की बात थी और लोग वर्तमान में जीते हैं। राजद के खेल बिगाड़ने में उनकी पार्टी के दो प्रवक्ताओं का बड़ा हाथ रहा। प्रियंका भारती और कंचना यादव दोनों लगातार चैनल पर आकर अभद्र, अमर्यादित और उचश्रृंखल भाषा का प्रयोग करते रहे शायद इसके लिए उन्हें पार्टी की तरफ से प्रोत्साहित किया गया हो पर तेजी से बदलते बिहार में ये भाषा पुनः उसी ताकत की याद दिलाने लगी जिसकी बिहारी कल्पना भी नहीं करना चाहता। देश मे लगातार बढ़ते हिन्दू मुसलमान की खाई में दिल्ली ब्लास्ट पर तेजस्वी का चुप रहना जनता को नागवार गुजरा। उनके अपने परिवार में फूट ने भी इस स्थिति को लाने में अपनी भूमिका निबाही। जो रही सही कसर थी वो खेसारी ने पूरी कर दी जब उसने राम मंदिर पर सवाल उठा दिए। याद रहे राम मंदिर आंदोलन में बिहार से दसियों हजार कार्यकर्ता गए थे । राम जन जन में बसे हैं उनकी अवमानना करना अभद्र होने के साथ असहनीय भी है। राजद नेतृत्व ने खेसारी को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। थोड़ी बात राजग के सहयोगियों की भी। मुकेश साहनी ने खुद को जबर्दस्ती उप मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनवा दिया। जबकि कांग्रेस इसकी स्वाभाविक दावेदार थी। चुनाव में उनका सूपड़ा साफ हो गया। पुनः राहुल गांधी का नरेन्द्र सरेंडर जुमला, ट्रम्प पर विश्वास कर मोदी पर निजी हमला जनता को रास नहीं आया। गौरतलब है कि भारतीय सेना में बिहारी 11% हैं और भारतीय सेना का अपमान लोग सह नहीं सकते हैं। मोदी पर गाली गलौज करते करते महागठबंधन मोदी की दिवंगत माँ को गाली दे बैठा। यह बड़ा संवेदनशील मुद्दे बन गया और प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी तरह से छट्ठी मैया पर ड्रामा वाली टिप्पणी ने ग्रामीण क्षेत्र के वोटरों को बहुत रंज किया। इतने सारे आयामों का ही असर है कि बिहार में अप्रत्याशित जीत हुई। जीत तो लगभग तय थी पर इन कारकों ने उसे यादगार बना दिया। सनद रहे कि तेजस्वी स्वयं *"जमीन के बदले नौकरी"* मामले में फंसे हुए हैं और अखबारों टीवी में इसकी धड़ाधड़ खबरें चलती रहीं। बिहार के पास दो विकल्प थे जो सरकार है वो चलती रहे या परिवर्तन के तौर पर डर भय और दोहन चुने। बिहार ने सुक्षित विकल्प चुना और जातियों में बटे समाज ने इस बार जात पात से ऊपर उठकर मतदान किया। नतीजा सबके सामने है।
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