मनुस्मृति और आधुनिक भारतीय संविधान
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय समाज के इतिहास में मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ रहा है, जो सदियों से सामाजिक, नैतिक और कानूनी व्यवस्था का आधार माना जाता रहा है। यह ग्रंथ, जिसे प्रथम मानव स्वायम्भुव मनु से जोड़ा जाता है, प्राचीन भारतीय समाज के वर्ण व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के सिद्धांतों, स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य और अधिकारों की व्याख्या करता है। मनुस्मृति के समर्थक इसे विश्व का प्रथम संविधान या सार्वभौमिक संहिता मानते हैं, जिसका प्रभाव एशिया के कई देशों में भी देखा गया है। वहीं, आधुनिक संदर्भ में, विशेषकर आजाद भारत के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक संविधान के लागू होने के बाद, मनुस्मृति एक गंभीर आलोचना का विषय रही है।
मनुस्मृति की सबसे तीखी आलोचना उसके विषमता-आधारित दृष्टिकोण को लेकर की जाती है। यह ग्रंथ न्याय, दंड , कर्तव्य  और अधिकारों के मामले में वर्ण के आधार पर भेदभाव को स्पष्ट रूप से स्थापित करता है।
आलोचकों का मानना है कि मनुस्मृति ने जन्म-आधारित जातिवाद को मजबूत किया, जिसने समाज को विभिन्न स्तरों में बाँट दिया। इसके कई श्लोक अलग-अलग वर्णों के लिए भिन्न-भिन्न नियम और दंड निर्धारित करते हैं। उदाहरण के लिए, एक ही अपराध के लिए उच्च वर्ण को कम, जबकि शूद्र को अधिक कठोर दंड का प्रावधान मिलता है। यह सिद्धांत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) का सीधा उल्लंघन है।
: मनुस्मृति में महिलाओं के अधिकारों और कर्तव्यों पर भी कई श्लोक हैं, जिनकी आलोचना की जाती है। कुछ श्लोक महिलाओं के सम्मान (जैसे, "जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं") की बात करते हैं, वहीं कई अन्य उन्हें पुरुषों पर आश्रित मानते हैं और उन्हें संपत्ति या स्वतंत्रता के पूर्ण अधिकार से वंचित करते हैं। आधुनिक संविधान महिलाओं को पुरुषों के समान स्वतंत्रता, अधिकार और अवसर प्रदान करता है, जो मनुस्मृति के कई प्रावधानों के विपरीत है।
मनुस्मृति पर यह भी आरोप है कि इसने शिक्षा और ज्ञान के अधिकार को उच्च वर्णों, विशेषकर ब्राह्मणों, तक सीमित कर दिया और शूद्रों को वेदों का पाठ करने या सुनने से रोका। यह ज्ञान और अवसर पर एकाधिकार स्थापित करता है, जो भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त शिक्षा के अधिकार और अवसर की समानता के मौलिक अधिकारों का हनन है।
आज़ाद भारत का संविधान, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के नेतृत्व में, समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है। 26 जनवरी 1950 को जब यह लागू हुआ, तो इसने कानूनी तौर पर मनुस्मृति के विषमतावादी सिद्धांतों को अस्वीकार कर दिया। संविधान सभी नागरिकों को एक समान मानता है और किसी भी प्रकार के सामाजिक भेदभाव को असंवैधानिक घोषित करता है। वहीं, मनुस्मृति का आधार वर्ण व्यवस्था और उससे उपजी विषमता रही है। यह मौलिक अंतर ही दोनों के बीच की बहस का मूल कारण है।आरक्षण और जातिवाद का आरोप: आपके कथन के अनुसार, कुछ आलोचक संविधान की आरक्षण नीति (SC/ST/OBC एक्ट) को जातिवाद को बढ़ावा देने वाला मानते हैं, जबकि मनुस्मृति में केवल वर्ण व्यवस्था थी, न कि 'घिनौना जातिवाद'। यह एक विवादास्पद मत है। अंबेडकर और कई समाजशास्त्रियों के अनुसार, जातिवाद का जन्म और मजबूती मनुस्मृति जैसे ग्रंथों की जन्म-आधारित व्यवस्थाओं से ही हुई। आधुनिक संविधान में आरक्षण एक सकारात्मक भेदभाव का उपाय है, जिसका उद्देश्य सदियों से शोषित और हाशिए पर पड़े समुदायों को ऐतिहासिक अन्याय से उबरने और सामाजिक समानता स्थापित करने में मदद करना है। यह मनुस्मृति की अधिकार-वंचित व्यवस्था के विपरीत, अधिकार-संपन्न बनाने का प आज़ादी के बाद के नेता कर्तव्य भूलकर अधिकार पाने के लिए सक्रिय हो गए हैं और मनुस्मृति की आलोचना करते हैं। यह एक महत्वपूर्ण आलोचना है जो आधुनिक लोकतंत्र की खामियों को इंगित करती है। यह सच है कि संविधान अधिकारों पर जोर देता है, लेकिन इसमें मौलिक कर्तव्य (अनुच्छेद 51A) भी शामिल हैं। हालांकि, मनुस्मृति के आलोचकों का मानना है कि पहले के समाज में कर्तव्य अक्सर ऊँच-नीच पर आधारित होते थे (जैसे शूद्रों का कर्तव्य केवल सेवा करना), जहाँ अधिकार जन्मजात थे। संविधान में, अधिकार और कर्तव्य सभी के लिए समान हैं, और किसी भी विषमतावादी व्यवस्था की आलोचना करना एक लोकतांत्रिक अधिक है।मनुस्मृति एक प्राचीन संहिता है जो अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संरचना को दर्शाती है। इसके कुछ प्रशासनिक और नैतिक सिद्धांत आज भी प्रासंगिक माने जा सकते हैं। हालाँकि, आधुनिक भारतीय संविधान का आधार मानव गरिमा, सामाजिक न्याय और व्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह 21वीं सदी के भारत की आवश्यकताओं और मूल्यों के अनुरूप है।मनुस्मृति की आलोचना केवल किसी एक प्राचीन ग्रंथ का खंडन नहीं है, बल्कि यह ऐतिहासिक सामाजिक असमानता के विरुद्ध समानता और न्याय के संवैधानिक मूल्यों की पुष्टि है। 'मनुवादी संस्कृति' पर होने वाली आलोचना समाज में उस सोच को चुनौती देती है जो आज भी जन्म-आधारित भेदभाव और पिछड़े विचारों को बनाए रखने का प्रयास करती है। आजाद भारत का संविधान, अपने दोषों के बावजूद, एक प्रगतिशील दस्तावेज है जो देश को समतामूलक समाज की ओर ले जाने का प्रयास करता है, जबकि मनुस्मृति का आधारभूत ढाँचा इस उद्देश्य के विपरीत है।
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