मैहर की यात्रा: माँ शारदा के चरणों में शांति और संगीत की अनुभूति

सत्येन्द्र कुमार पाठक
प्यात्रा का आरंभ और मैहर की पुकार 10 नवंबर की प्रातःकाल थी, जब मैंने रीवा से अपनी निजी यात्रा का आरंभ किया। गंतव्य था मध्य प्रदेश का वह नवसृजित जिला—मैहर—जो 18 मार्च 2020 को अस्तित्व में आया और 4 सितंबर 2023 से विधिवत कार्यशील हुआ। मैहर सिर्फ एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि सनातन धर्म के शाक्त संप्रदाय का एक पवित्र तीर्थस्थल है, जिसे माँ शारदा की नगरी और मध्य प्रदेश की संगीत नगर के रूप में भी जाना जाता है। एक साहित्यकार और इतिहासकार के रूप में, मेरा उद्देश्य केवल दर्शनीय स्थलों का अवलोकन करना नहीं था, बल्कि उस भूमि की आत्मा को महसूस करना था, जहाँ इतिहास, आस्था और कला का अद्भुत संगम होता है। मेरी यात्रा का यह वृत्तांत मैहर की उस त्रिवेणी को समर्पित है: त्रिकूट पर्वत पर स्थित शक्तिपीठ, दक्ष-यज्ञ की पौराणिक कथा, और मैहर घराने की संगीत विरासत।
जैसे-जैसे मेरी गाड़ी रीवा से मैहर की ओर बढ़ती गई, विंध्य और कैमूर पर्वत श्रेणियों की श्रृंखलाएं क्षितिज पर उभरने लगीं। मैहर, जिसकी तहसीलें अमरपाटन, अमदरा, बदेरा, मैहर, नादन और रामनगर हैं, समुद्र तल से 367 मीटर (1,204 फीट) की औसत ऊँचाई पर स्थित है। यह भौगोलिक स्थिति ही मैहर के नैसर्गिक सौन्दर्य का आधार है। यहाँ की मिट्टी उपजाऊ है, जिसे टोंस नदी का जल सींचता है, और पहाड़ी जिलों को छोड़कर अधिकांश क्षेत्र में जलोढ़ मिट्टी का विस्तार है। मैहर की पहचान केवल धार्मिक नहीं, बल्कि औद्योगिक भी है। यहाँ पर मैहर सीमेंट, रिलायंस सीमेंट (अब अल्ट्राटेक), और के.जे.एस. सीमेंट जैसी तीन बड़ी सीमेंट फैक्ट्रियां कार्यरत हैं, जो क्षेत्र की आर्थिक धुरी हैं। सरलानगर में स्थित मैहर सीमेंट कारखाना परिसर, मैहर-कैमोर रोड पर लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर है। यह विरोधाभासी है कि एक ओर पवित्र मंदिर की शांति है, तो दूसरी ओर उद्योग की जीवंतता। मैहर की नगर पालिका परिषद की आबादी 2021 की जनगणना के अनुसार लगभग 55,000 है, जो अपनी सादगी और धार्मिक माहौल के लिए जानी जाती है। राष्ट्रीय राजमार्ग 30 और पश्चिम मध्य रेलवे पर स्थित होने के कारण, मैहर की पहुँच सुगम है, जिसने इसे भक्तों और यात्रियों के लिए पसंदीदा स्थान बना दिया है ।
मैहर पहुँचते ही सबसे पहले जिसकी भव्यता आकर्षित करती है, वह है त्रिकूट पर्वत की शारदा श्रृंखला, जिस पर माँ शारदा का प्रसिद्ध मंदिर अवस्थित है। यह मंदिर मैहर शहर के मध्य से लगभग 5 किलोमीटर ऊपर, 600 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। माँ शारदे के दर्शन के लिए, मैंने 150 रुपये का रोपवे शुल्क जमा किया और रोपवे के माध्यम से पर्वत की चोटी की ओर प्रस्थान किया। यह यात्रा केवल भौतिक दूरी तय करना नहीं था, बल्कि तलहटी की कोलाहल से ऊपर, शांति की ओर आरोहण था। रोपवे से नीचे फैली हुई प्रकृति का नज़ारा मनमोहक था—नैसर्गिक रूप से समृद्ध कैमूर और विंध्य की पर्वत श्रेणियों की गोद में अठखेलियां करती तमसा नदी। जब मैं चोटी पर पहुँचा और माँ शारदे का दर्शन किया, तो मुझे शांति और आनंद की एक अलौकिक अनुभूति प्राप्त हुई। यह शाक्त स्थल की यात्रा मेरे लिए एक संस्मरण बन गया—वह पल जब आस्था और ऐतिहासिकता एक बिंदु पर आकर मिलते हैं।
यह ऐतिहासिक मंदिर 108 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है, जिसे सतयुग के प्रमुख अवतार नृसिंह भगवान के नाम पर 'नरसिंह पीठ' के नाम से भी जाना जाता है। माँ शारदा के बगल में प्रतिष्ठापित नरसिंहदेव जी की पाषाण मूर्ति लगभग 1500 वर्ष पूर्व की है, जिसे नुपूला देवा द्वारा शेक 424 चैत्र कृष्ण पक्ष, मंगलवार को विक्रम संवत् 559 (502 ई.) में स्थापित किया गया था। इस प्राचीन शिलालेख में देवनागरी लिपि में इसका उल्लेख है।
स्थानीय परंपरा और आल्हखण्ड के नायक, आल्हा और ऊदल, दोनों भाइयों का संबंध इस मंदिर से गहरा है। कहा जाता है कि वे माँ शारदा के अनन्य उपासक थे। पर्वत की तलहटी में आज भी आल्हा का तालाब और उनका अखाड़ा विद्यमान है। यह मान्यता है कि आल्हा ने 12 साल तपस्या कर माँ शारदा से अमरत्व का वरदान प्राप्त किया और वे आज भी भोर में सबसे पहले माँ की पूजा करने आते हैं। इस बात का प्रमाण कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान भी मिला, जब मंदिर बंद होने और पुलिस की पहरेदारी के बावजूद सुबह मंदिर खुलने पर वहाँ ताजे फूल, नारियल, चुनरी और प्रसाद चढ़ा हुआ मिलता था। माँ शारदा शक्ति पीठ के वर्तमान प्रधान पुजारी पवन पाण्डेय जी हैं।
मैहर की यात्रा ने मुझे उस गहन पौराणिक कथा की ओर मोड़ दिया, जिसके कारण इस शक्तिपीठ का निर्माण हुआ—दक्ष-यज्ञ-विध्वंस की कथा। यह कथा केवल एक धार्मिक कहानी नहीं, बल्कि शक्ति के अनादर और उसके पुनरुत्थान का इतिहास है।
ब्रह्मा जी के पुत्र प्रजापति दक्ष का विवाह प्रसूति से हुआ, जिन्होंने सती सहित सोलह कन्याओं को जन्म दिया। दक्ष ने तप करके माता शक्ति को प्रसन्न किया और सती के रूप में पुत्री प्राप्त की। शक्ति ने दक्ष से पहले ही कह दिया था कि जब दक्ष द्वारा उनका अनादर होगा, तो वह अपने धाम चली जाएँगी और शम्भु (शिव) की भार्या बनेंगी। दक्ष का भगवान् शिव से मनोमालिन्य क्यों हुआ, इसके तीन प्रमुख मत हैं: ब्रह्मा के कटे सिर का विवाद: एक मत के अनुसार, शिव द्वारा ब्रह्मा का एक सिर काट देने के कारण दक्ष क्रोधित थे। स्वयंवर में शिव को पति चुनना: शाक्त मत के अनुसार, दक्ष की इच्छा के विरुद्ध सती द्वारा 'शिवाय नमः' कहकर शिव को पति चुनने के कारण।
यज्ञ में अनादर: देवीभागवत पुराण के अनुसार, एक यज्ञ में शिव द्वारा खड़े होकर सम्मान न दिए जाने पर दक्ष ने अपना अपमान महसूस किया और शिव को यज्ञ में भाग न मिलने का शाप दे दिया।
अपने मनोमालिन्य के कारण, दक्ष ने अपनी राजधानी कनखल में एक विराट यज्ञ का आयोजन किया और जानबूझकर शिव और सती को निमंत्रित नहीं किया। शंकर जी के समझाने के बाद भी सती बिना बुलाए यज्ञ में पहुँचीं, जहाँ दक्ष ने उनका और शिव का घोर निरादर किया। अपमान की अग्नि में सती ने तत्काल योगाग्नि से स्वयं को भस्म कर दिया।
सती की मृत्यु का समाचार सुनकर शिव ने अपनी जटा या तीसरे नेत्र से वीरभद्र को उत्पन्न किया। वीरभद्र ने उस यज्ञ का विध्वंस किया, देवताओं और ऋषियों को दंड दिया, और क्रोधवश दक्ष प्रजापति का सिर काट डाला। बाद में, शिव ने दक्ष को बकरे का सिर प्रदान कर उसके यज्ञ को पूर्ण करवाया।
दक्ष-यज्ञ-विध्वंस की कथा का विकास स्पष्टतः तीन चरणों में हुआ:प्रथम चरण (महाभारत): इस रूप में सती भस्म नहीं होती, केवल यज्ञ का विध्वंस होता है। वीरभद्र केवल यज्ञ को नष्ट करता है, दक्ष का सिर नहीं काटता।
द्वितीय चरण (श्रीमद्भागवत/शिव पुराण): सती हठपूर्वक यज्ञ में सम्मिलित होकर योगाग्नि से भस्म होती है। वीरभद्र दक्ष का सिर काटकर जला देता है, और उसे बकरे का सिर जोड़ा जाता है। इस चरण में सती की लाश का कोई जिक्र नहीं है। तृतीय चरण (देवीपुराण/महाभागवत): सती जल जाती है, दक्ष का सिर काटा जाता है और बकरे का सिर जोड़ा जाता है। इसके बाद, शिव को सती की लाश सुरक्षित और देदीप्यमान रूप में यज्ञशाला में मिलती है। शिव उस लाश को लेकर विक्षिप्त की तरह भटकते हैं, और भगवान् विष्णु चक्र से लाश को खंड-खंड काटते जाते हैं।
इसी तीसरे चरण के अनुसार, सती के शरीर का जो हिस्सा और आभूषण जहाँ-जहाँ गिरे, वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ अस्तित्व में आए। परंपरा के अनुसार, मैहर में माँ सती का हार गिरने से (मैहर = माई का हार) यह स्थल शक्तिपीठ के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ। कुछ ग्रंथों में उनके ऊर्ध्व ओष्ठ गिरने का भी जिक्र है। इस तरह, मैहर देश के लाखों भक्तों के आस्था का केंद्र है।
मैहर की मेरी यात्रा का तीसरा महत्त्वपूर्ण आयाम इसकी सांस्कृतिक पहचान है। यह शहर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक अमूल्य धरोहर—मैहर घराना—का जन्मस्थान है, जिसने इसे 'संगीत नगर' का विशेषण दिया।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के सबसे बड़े दिग्गजों में से एक, उस्ताद अलाउद्दीन खान (1862-1972) ने लंबे समय तक मैहर में निवास किया। वे मैहर के महाराजा पैलेस के दरबारी संगीतकार थे। उस्ताद अलाउद्दीन खान को उनकी प्रतिभा, ज्ञान और नए रागों के सृजन के लिए जाना जाता है। उन्हें भारतीय संगीत का 'भीष्म पितामह' कहा जाता है।
मैहर घराने की नींव उन्होंने ही रखी और यहाँ से संगीत की वह धारा प्रवाहित हुई, जिसने देश-विदेश में अपनी छाप छोड़ी। उनके शिष्यों की सूची भारतीय संगीत के इतिहास के शीर्ष नामों से भरी पड़ी है:
श्रीमती अन्नपूर्णा देवी (अलाउद्दीन खान की बेटी) उस्ताद अली अकबर खान (अलाउद्दीन खान के पुत्र)
पंडित रवि शंकर , पंडित निखिल बनर्जी , पंडित पन्नालाल घोष , उस्ताद आशीष खान (पोते)
उस्ताद अलाउद्दीन खान के सान्निध्य में मैहर ने भारतीय वाद्य संगीत को एक नई दिशा दी। 1962 में, दीप चंद शैली द्वारा पहले उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें अली अकबर खान, पंडित रवि शंकर, पंडित राम नारायण, पंडित शांता प्रसाद और निखिल बनर्जी जैसे कलाकारों ने भाग लिया। यह सम्मेलन आज भी मैहर की संगीत विरासत को जीवंत बनाए रखता है।मेरी मैहर की यात्रा, जो साहित्यकार व इतिहासकार सत्येन्द्र कुमार पाठक द्वारा 10 नवंबर को की गई, केवल एक पर्यटन नहीं, बल्कि एक गहरा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिभ्रमण था।त्रिकूट पर्वत की शांत, ऊँची पहाड़ियों पर माँ शारदा के दर्शन से मिली शांति और आनंद की अनुभूति अविस्मरणीय है। मंदिर की दीवारों में इतिहास गूँजता है—आल्हा और ऊदल की भक्ति की कथाएँ, नरसिंह देव जी की प्राचीन पाषाण मूर्ति, और शक्तिपीठ की पौराणिक जड़ें। वहीं, मैहर की गलियों और महाराजा पैलेस में संगीत की अमर गूँज सुनाई देती है, जो उस्ताद अलाउद्दीन खान और उनके शिष्यों द्वारा रची गई थी। मैहर, जिसे कभी महिष्मति साम्राज्य के अंतर्गत माना जाता था और जहाँ बाद में प्रतिहार, पाल, गोंड, चंदेल, और बघेल राजाओं ने शासन किया, आज भी अपनी गरिमा और पवित्रता को बनाए हुए है यह यात्रा वृत्तांत और संस्मरण केवल मैहर के स्थलों का विवरण नहीं है, बल्कि उस स्थान के प्रति एक श्रद्धांजलि है, जहाँ प्रकृति, आस्था और कला एक साथ मिलकर मानव चेतना को अभय और आनंद की ओर ले जाते हैं, जैसे माँ शारदा ने अपने परम भक्त आल्हा को अमर किया। निष्कर्षतः, मैहर की यात्रा ने इतिहास के पन्नों, पुराणों की कथाओं और शास्त्रीय संगीत की लहरों को एक ही स्मृति में पिरो दिया, जिसे मैं अपने हृदय में चिरकाल तक सँजो कर रखूँगा ।
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