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दो घूॅ़ंट चाय

दो घूॅ़ंट चाय

जरूरी नहीं चाय कप भर पीना ,
अगर जिंदगी सुंदर तुझे है जीना ,
दिन भर में कितने कप तू गिना ,
क्या जी नहीं सकता चाय बिना ।
कहते चाय से सर्द में आती गर्मी ,
किंतु गर्मी में नहीं लाता ये नरमी ,
गैस फैलाता यह तन में ही तेरे ,
चाय नहीं बन पाता यह धरमी ।
एक कप चाय की बनी है आदत ,
चाय पीना है जीवन का शहादत ,
चाय का बोझ जीवन में लादत ,
क्या दो घूॅ़ंट चाय न देता राहत ।
जीवन में छाए रहे सदा ये मुस्की ,
दो घूॅ़ंट चाय का लेते रहो चुस्की ,
मिटे न चाय से गले का खुस्की ,
आदत है बुरी चाहे हो जिसकी ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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