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यूॅं ही चलता जा रहा हूॅं

यूॅं ही चलता जा रहा हूॅं

यूॅं ही चलता चला जा रहा हूॅं ,
न मंजिल कोई न है ठिकाना ।
ऊपरवाले को ही है समझना ,
कहाॅं है मेरा अब आशियाना ।।
हूॅं मैं पथ या बेपथ जा रहा हूॅं ,
सड़क पे यूॅं बढ़ता जा रहा हूॅं ।
बिन सीढ़ी का ही अंतरीक्ष में ,
पैदल ही मैं चढ़ता जा रहा हूॅं ।।
दिख रहा है एक सड़क मुझे ,
जिस सड़क मैं सड़क रहा हूॅं ।
दिल में है यह अंधकार भरा ,
भय से अंदर ही दरक रहा हूॅं ।।
चाल मेरी है यह बहुत धीमी ,
कोई चाहे तो मुझको लौटा ले ।
चाहे समक्ष मेरे खुलकर आए ,
या आए मुख निज मुखौटा ले ।।
भूल रहा हूॅं मैं तो स्वयं को ही ,
कौन हूॅं और कहाॅं जा रहा हूॅं ।
जाने कैसा दिख रहा हूॅं मैं तो ,
लोगों को क्या दिखा रहा हूॅं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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