"भाग्य के उस पार"
पंकज शर्माकिसी अदृश्य सभागार में
आज आमने-सामने थे —
भाग्य, अपने अदृश्य लेखनी लिए,
और कर्म, अपने घिसे हुए हाथों में लहू की गंध लिए।
दोनों ने एक-दूसरे को देखा,
जैसे कोई पुराना वैर अब ताजगी पा गया हो,
आकाश थर्राया,
धरती ने अपनी नब्ज़ टटोली —
कौन विजयी होगा, यह प्रश्न हवा में ठहर गया।
भाग्य बोला —
“मैं नियति हूँ, मेरे बिना कुछ घट नहीं सकता।”
कर्म मुस्कुराया —
“और मैं वही हूँ जो घटा देता हूँ,
जब घटित होने से इनकार कर देता हूँ।”
उनके बीच खड़ा था विश्वास,
जो दोनों का सगा था,
पर किसी का दास नहीं।
उसके भीतर था — अंधकार में दीपक जलाने का साहस।
और वहीं पास ही था आत्मविश्वास,
जो विश्वास से भी एक कदम आगे बढ़ गया,
उसने कहा —
“यदि मैं हूँ, तो भाग्य भी मेरा लिखा हुआ है,
न कि किसी और का।”
समय थम गया उस क्षण,
न कोई विजेता था, न कोई हारने वाला,
बस एक मौन फैल गया —
जैसे ब्रह्मांड ने शांति का ध्वज उठा लिया हो।
मानव, उस अदृश्य युद्ध का साक्षी बना,
उसके भीतर भी वही द्वंद्व गूंजा —
क्या वह स्वीकार करे जो लिखा है,
या रचे नया अध्याय अपनी मिट्टी से।
और तब शायद,
कहीं भीतर किसी सूक्ष्म स्तर पर,
भाग्य और कर्म ने हाथ मिला लिए,
क्योंकि वे दोनों समझ गए —
मनुष्य की जिजीविषा ही
उनका अंतिम समर्पण है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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