“अस्तित्व”
✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"शीत की फुसफुस धारा में,
जब जीवन ने लौट बुलाया,
अग्नि-लहर की अनमनी थपक ने,
सत्य-दीप फिर था जलाया।
ऋतु-ऋतु में फैले अनुभव,
परिक्रमा बन कर्म-संधान,
हर क्षण देता नयी दिशा को,
जग करता अंतः जाग्रत गान।
मिलन! अदृश्य शिल्प का स्पर्श,
जो मन-दीवारों पर लिखता,
वियोग! मौन ऋषि बनकर,
स्मृति को अर्थ-सुधा में दिखता।
धीरे जाना! स्वामित्व भ्रम है,
जल-सा हर क्षण ढल जाता,
जो अपना समझा था कब का,
केवल अनुभव बन रह जाता।
कुछ आए शीतल चन्द्र-प्रभ-से,
थके पंथ पर छाँह बिछाए,
कुछ बिजली-रेखा-से चमके,
क्षण में तम का दीप बुझाए।
देन मिली जब रिक्त हृदय ने,
खुद को सौंपा नीरव भाव,
प्राप्ति मिली निर्मोही करुणा में,
जैसे गिरे उज्ज्वल छाव।
अस्तित्व! उपहार सभी पावन,
विकट नहीं, न व्यर्थ भासते;
हम सब एक प्रवाह के कण,
देने-पाने में ही रासते।
छूटन भी उत्थान बन जाता,
पतझड़ जैसे नूतन तन दे,
पाना तब बस सत्य-शीतलता,
जो मन का बोझ अपरिमित हर ले।
जीवन का सार न लेन-दे में,
पर उस संतुलन-शांति-स्पर्श में,
जहाँ आत्मा नदी-सी बहती,
तट रचती, मिटती उत्कर्ष में।
अनवरत यह यात्रा सिखलाती,
अस्तित्व-धरा का यह नियम,
देन और ग्रहण जहाँ मिटें,
वहीं पूर्ण हो जाता जीवन।
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