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धनत्रयोदशी

धनत्रयोदशी

‘धनत्रयोदशी’ दिन के विशेष महत्त्व का कारण यह दिन देवताओं के वैद्य धन्वंतरि की जयंती का दिन है । धनत्रयोदशी मृत्यु के देवता यमदेव से संबंधित व्रत है । यह व्रत दिनभर रखते हैं । व्रत रखना संभव न हो, तो सायं काल के समय यमदेव के लिए दीपदान अवश्य करते हैं ।

१. धनत्रयोदशी दिनविशेष
विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात `धनत्रयोदशी’ । इसी को `धनतेरस’ भी कहते हैं । इस दिन के विशेष महत्त्व का कारण यह दिन देवताओं के वैद्य धन्वंतरि की जयंती का दिन है ।

२. धन्वंतरि जयंती

समुद्रमंथन के समय धनत्रयोदशी के दिन अमृतकलश हाथ में लेकर देवताओं के वैद्य भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए । इसीलिए यह दिन भगवान धन्वंतरि के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है । आयुर्वेद के विद्वान एवं वैद्य मंडली इस दिन भगवान धन्वंतरि का पूजन करते हैं और लोगों के दीर्घ जीवन तथा आरोग्यलाभ के लिए मंगल कामना करते हैं । इस दिन नीम के पत्तों से बना प्रसाद ग्रहण करने का महत्त्व है । माना जाता है कि, नीम की उत्पत्ति अमृत से हुई है और धन्वंतरि अमृत के दाता हैं । अत: इस के प्रतीकस्वरूप धन्वंतरि जयंती के दिन नीम के पत्तों से बना प्रसाद बांटते हैं ।

३. यमदीपदान

दीपावली के काल में धनत्रयोदशी, नरकचतुर्दशी एवं यमद्वितीया, इन तीन दिनोंपर यमदेव के लिए दीपदान करते हैं । इन में धनत्रयोदशी के दिन यमदीपदान का विशेष महत्त्व है, जो स्कंदपुराण के इस श्लोक से स्पष्ट होता है ।

कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे ।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनिश्यति ।। – स्कंदपुराण

इसका अर्थ है, कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी के दिन सायं काल में घर के बाहर यमदेव के उद्देश्य से दीप रखने से अपमृत्यु का निवारण होता है ।

इस संदर्भ में एक कथा है कि, यमदेवने अपने दूतों को आश्वासन दिया कि, धनत्रयोदशी के दिन यमदेव के लिए दीपदान करनेवाले की अ काल मृत्यु नहीं होगी ।

४. धनत्रयोदशी के दिन यमदीपदान करने का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व
४ अ. दीपदान से दीर्घ आयु की प्राप्ति होना
दीप प्राणशक्ति एवं तेजस्वरूप शक्ति प्रदान करता है । दीपदान करने से व्यक्ति को तेज की प्राप्ति होती है । इस से उस की प्राणशक्ति में वृद्धि होती है और उ से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है ।


४ आ. यमदेव के आशीर्वाद प्राप्त करना
धनत्रयोदशी के दिन ब्रह्मांड में यमतरंगों के प्रवाह कार्यरत रहते हैं । इसलिए इस दिन यमदेवता से संबंधित सर्व विधियों के फलित होने की मात्रा अन्य दिनों की तुलना में ३० प्रतिशत अधिक होती है । धनत्रयोदशी के दिन संकल्प कर यमदेव के लिए दीप का दान करते हैं और उन के आशीर्वाद प्राप्त करते हैं ।

४ इ. यमदेव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना
यमदेव मृत्युलोक के अधिपति हैं । धनत्रयोदशी के दिन यमदेव का नरकपर आधिपत्य होता है । साथही विविध लोकों में होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के संचारपर भी उन का नियंत्रण रहता है । धनत्रयोदशी के दिन यमदेव से प्रक्षेपित तरंगें विविध नरकोंतक पहुंचती हैं । इसी कारण धनत्रयोदशी के दिन नरक में विद्यमान अनिष्ट शक्तियोंद्वारा प्रक्षेपित तरंगें संयमित रहती हैं । परिणामस्वरूप पृथ्वीपर भी नरकतरंगों की मात्रा घटती है । इसीलिए धनत्रयोदशी के दिन यमदेव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन का भावसहित पूजन एवं दीपदान करते हैं । दीपदान से यमदेव प्रसन्न होते हैं ।

संक्षेप में कहें तो, यमदीपदान करना अर्थात दीप के माध्यम से यमदेव को प्रसन्न कर अपमृत्यु के लिए कारणभूत कष्टदायक तरंगों से रक्षा के लिए उन से प्रार्थना करना ।


५. यमदीपदान की विधि हेतु आवश्यक सामग्री आर महत्त्व
यमदीपदान विधि में नित्य पूजा की थाली में घिसा हुआ चंदन, पुष्प, हलदी, कुमकुम, अक्षत अर्थात अखंड चावल इत्यादि पूजासामग्री होनी चाहिए । साथ ही आचमन के लिए ताम्रपात्र, पंचपात्र, आचमनी ये वस्तुएं भी आवश्यक होती हैं । यमदीपदान करने के लिए हलदी मिलाकर गुंदे हुए गेहूं के आटे से बने विशेष दीप का उपयोग करते हैं ।

५ अ. गेहूं के आटे से बने दीप का महत्त्व
धनत्रयोदशी के दिन काल की सूक्ष्म कक्षाएं यमतरंगों के आगमन एवं प्रक्षेपण के लिए खुली होती हैं । इस दिन तमोगुणी ऊर्जातरंगे एवं आपतत्त्वात्मक तमोगुणी तरंगे अधिक मात्रा में कार्यरत रहती हैं । इन तरंगों में जडता होती है । ये तरंगे पृथ्वी की कक्षा के समीप होती हैं । व्यक्ति की अपमृत्यु के लिए ये तरंगे कारणभूत होती हैं । गेहूं के आटे से बने दीप में इन तरंगों को शांत करने की क्षमता रहती है । इसलिए यमदीपदान हेतु गेहूं के आटे से बने दीप का उपयोग किया जाता है ।

यमदीपदान के उद्देश्य से की जानेवाली पूजा के लिए दीप स्थापित करने के लिए श्रीकृष्णयंत्र की रंगोली बनाते है । यमदीपदान हेतु इसप्र कार कृष्णतत्त्व से संबंधित रंगोली बनाने का विशेष महत्त्व है ।

५ आ. यमदीपदान के समय दीप रखने के लिए कृष्णतत्त्व से संबंधित रंगोली बनाने का शास्त्रीय आधार
दीप की पूजनविधि से पूर्व श्रीविष्णु के २४ नामों से उन का आवाहन कर विधि का संकल्प करते हैं । `श्रीकृष्ण’ श्रीविष्णु के पूर्णावतार हैं । यमदेव में भी श्रीकृष्णजी का तत्त्व होता है । इस कारण पूजन के पूर्व किए जानेवाले आवाहनद्वारा विधि के स्थानपर अल्प समयमेंही यमदेव का आगमन तत्त्वरूप में होता है । मृत्यु से संबंधित जडत्वदर्शक तरंगों से व्यक्ति को होनेवाला कष्ट, श्रीकृष्णजी के तथा यमदेव के अधिष्ठान के फलस्वरूप घट जाता है । यही कारण है कि, धनत्रयोदशी के दिन श्रीकृष्णजी का तत्त्व आकृष्ट करनेवाली रंगोली बनाते हैं । यमदेव में शिवतत्त्व भी होता है । इस कारण शिवतत्त्व से संबंधित रंगोली भी बना सकते हैं । इसका लाभ श्रीकृष्ण तत्त्व की रंगोली से प्राप्त लाभ समानही होता है ।


६. यमदीपदान पूजनविधि और उस का शास्त्रीय आधार
प्रथम आचमन, प्राणायाम, उपरांत देश काल का उच्चारण किया जाता है । यमदीपदान के लिए संकल्प किया जाता है। संकल्प करते समय इस प्र कार उच्चारण किया जाता है ।

मम अपमृत्यु विनाशार्थम् यमदीपदानं करिष्ये ।
इसका अर्थ है, अपनी अपमृत्यु के निवारण हेतु मैं यमदीपदान करता हूं ।

ताम्रपात्र में रखा आटे का दीप प्रज्वलित किया जाता है । रंगोली से बनाए गए श्रीकृष्णयंत्र के मध्यबिंदुपर दीप रखा जाता है । दीप को चंदन, अक्षत, हलदी एवं कुमकुम अर्पित किया जाता है । दीप को पुष्प अर्पित किया जाता है। दीप को नमस्कार किया जाता है। इस के पश्चात् यह दीप उठाकर घर के बाहर ले जाने के लिए ताम्रपात्र में रखा जाता है । दीप को घर के बाहर ले जाते हैं । घर के बाहर दीप को दक्षिण दिशा की ओर मुख कर रखा जाता है ।
यमदेवता को उद्देशित कर प्रार्थना की जाती है ।

मृत्युना पाशदंडाभ्यां कालेन श्यामयासह ।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यज: प्रीयतां मम ।। – स्कंदपुराण

इसका अर्थ है, त्रयोदशीपर यह दीप मैं सूर्यपुत्र को अर्थात् यमदेवता को अर्पित करता हूं । मृत्यु के पाश से वे मुझे मुक्त करें और मेरा कल्याण करें ।

जिन्हें श्लोक की जान कारी नहीं, वे अर्थ को समझ कर मृत्यु के पाश से मुक्त होने के लिए एवं अपने कल्याण के लिए प्रार्थना कर सकते हैं । प्रार्थना जितनी भावपूर्वक की जाती है, उतना ही लाभ अधिक होता है । दीपदान हेतु जल छोडा जाता है ।

७. पूजित दीप घर के बाहर दक्षिण दिशा में रखने के परिणाम
दक्षिण दिशा यमतरंगों के लिए पोषक होती है अर्थात दक्षिण दिशा से यमतरंगें अधिक मात्रा में आकृष्ट एवं प्रक्षेपित होती हैं ।

दक्षिण दिशा से यमतरंगों का प्रवाह दीप की ओर आकृष्ट होता है । यमतरंगों का यह प्रवाह दीप के चारों ओर वलयांकित रूप में फैलता है । यमतरंगों के कारण कनिष्ठ प्र कार की अनिष्ट शक्तियां दूर हट जाती हैं । यमतरंगों के रूप में आए यमदेव के दर्शन हेतु स्थानदेवता एवं वास्तुदेवता भी तत्त्वरूप में उस स्थानपर आते हैं । इन देवताओं के आगमन के कारण वायुमंडल चैतन्यमय बनता है । वास्तु में रहनेवाले सभी सदस्यों को इसका लाभ होता है ।

इस प्रकार यमतरंगों के निकट आने के कारण धनत्रयोदशी के दिन दीप का पूजन कर उस का यमदेव के लिए किया दान उन्हें अल्पावधि में एवं सहजता से प्राप्त होता है । परिणामस्वरूप अपमृत्यु के लिए कारणभूत तरंगों से व्यक्ति की रक्षा होती है ।
८. व्यापारियोंद्वारा किया जानेवाला द्रव्यकोष में पूजन

व्यापारी लोगों के लिए यह दिन विशेष महत्त्व का है । व्यापारी वर्ष, एक दीवाली से दूसरी दीवालीतक होता है । नए वर्ष की लेखा-बहियां इसी दिन लाते हैं । कुछ स्थानोंपर इस दिन व्यापारी द्रव्यकोष का अर्थात तिजोरी का पूजन करते हैं ।

पूर्व काल में साधना के एक अंग के रूप में ही व्यापारी वर्ग इस दिन द्रव्यकोष का पूजन करते थे । परिणामस्वरूप उन के लिए श्री लक्ष्मीजी की कृपा से धन अर्जन एवं उस का विनियोग उचित रूप से करना संभव होता था । इस प्र कार वैश्यवर्ण की साधनाद्वारा परमार्थ पथपर अग्रसर होना व्यापारी जनों के लिए संभव होता है ।

धनत्रयोदशी के दिन विशेष रूप से स्वर्ण अथवा चांदी के नए पात्र तथा नए वस्त्रालं कार क्रय किए जाते हैं । इस से वर्षभर घर में धनलक्ष्मी वास करती हैं ।

९. धनत्रयोदशी के दिन स्वर्ण अथवा चांदी के नए पात्र क्रय करने का शास्त्रीय कारण
धनत्रयोदशी के दिन लक्ष्मीतत्त्व कार्यरत रहता है । इस दिन स्वर्ण अथवा चांदी के नए पात्र क्रय करने की कृतिद्वारा श्री लक्ष्मी के धनरूपी स्वरूप का आवाहन किया जाता है और कार्यरत लक्ष्मीतत्त्व को गति प्रदान की जाती है । इस से द्रव्यकोष में धनसंचय होने में सहायता मिलती है ।

यहां ध्यान रखनेयोग्य बात यह है कि, धनत्रयोदशी के दिन अपनी संपत्ति का लेखा-जोखा कर शेष संपत्ति ईश्वरीय अर्थात सत्कार्य के लिए अर्पित करने से धनलक्ष्मी अंततक रहती है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार धार्मिक उत्सव एवं व्रत’
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