राजनेताओं के वाल्मीकि अलग हैं:महर्षि वाल्मीकि
(जयन्ती पर स्मृति-तर्पण)
-मार्कण्डेय शारदेय
भारत आदिकाल से ही ज्ञान को महत्व देता आया है।यहाँ ज्ञानबल के आगे देहबल, जनबल व धनबल सिर नवाता आया है।आज भी यह है, परन्तु आज छद्म ज्ञानियों के कारण भरोसा कमता जा रहा है।तो भी त्यागी, तपोमूर्ति महात्मा, विद्वान, विशेषज्ञ पूरे सम्मान के साथ हृदय-हृदय में समाए हैं।भौतिकता से भले नामशेष हों, पर यशस्विता से वर्षों, शताब्दियों, सहस्राब्दियों के अन्तराल पार कर भी अजर-अमर हैं।
वैदिक काल के ज्ञानसाधक प्रायः एकान्त शान्त वनप्रान्त में वास करते थे।कुछ गृहस्थ भी थे तो कुछ विरक्त भी।गृहस्थ भी संयमित जीवन एवं सीमित आवश्यकताओं के साथ-साथ भरपूर ज्ञान-पिपासा से युक्त होने से उनकी जीवनचर्या भोग के दलदल में फँसकर अपना लक्ष्य खो नहीं बैठती थी।वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् से लेकर रामायण, महाभारत एवं पुराणों तक की रचना जंगलों में जंगलवासी महामानवों द्वारा हुई।भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान के समस्त रूप, सभी कलाएँ, सभी वेदांग वहीं उपजे, जो रोगियों को उपचार, भोगियों को भोग, योगियों को योग, राजाओं को राजनीति, व्यक्ति-व्यक्ति को धर्म व जीवनशैली सिखाते रहे।उनका निःस्वार्थ प्रकृतिप्रेम, जीवप्रेम हमारे लिए सम्बल बने।वे हमारे लोक-परलोक के सेतु रहे।इन्हीं से ललित साहित्य का भी उतार हुआ।इन्हीं से सामाजिक संरचना की सारी कड़ियाँ जुड़ीं, शृंखलाएँ बनीं।
महर्षि वाल्मीकि भारतीय पारिस्थितिकी की ऐसी ही उद्भूत विभूतियों में से एक रहे।जब वैदिक संस्कृत अपनी पुरानी बनावटों में नएपन में ढलने चली तो इन्होंने ही पहला सहारा दिया। संस्कृत की भाषिक लता जब नए-नए पनखे फेंकने लगी तो एक सजग माली की तरह इन्होंने ही उसे सही रास्ता दिखाने का काम किया।आज की लौकिक संस्कृत को आदि में इन्होंने ही प्रथमतः सादर सम्मान देकर अपने साहित्य-सृजन के लिए स्वीकार किया और इसीलिए यह आदिकवि कहलाए।
महर्षि की एकमात्र अमर कीर्ति रामायण है, जो स्वयं तो जीवन्त है ही अपने रचयिता को भी कभी मरने देनेवाली नहीं है।माना कि उपलब्ध रामायण में बहुत घालमेल है, पर नीरक्षीर-विवेक दूध-का-दूध पानी-का-पानी अलग कर लेता है।मुख्य विचारणीय है कवि-परिचय।कारण कि समय और नाम को लेकर अनेक मत हैं।फिर भी इस पक्ष में अधिक हाथ-पाँव मारने की अपेक्षा कामिल बुल्के की ‘रामकथा’ के शोध से आस्वस्ति है।बुल्के साहब ने जो काम किया है, वह बहुत मूल्यवान एवं ठोस है।स्थितिकाल से सम्बन्धित जो विवरण प्रस्तुत किया है, उसमें सबसे अधिक जी. गोरेसियो का 12वीं सदी ई.पू. एवं सबसे कम एम विंटरनित्स का दूसरी सदी है।असल में आदिरामायण और प्रचलित रामायण का झमेला है।आदि से मतलब, जिसे विद्वान अमिश्रित मानते हैं और प्रचलित से मतलब जिसे मिश्रित मानते हैं, यानी क्षेपकयुक्त।बुल्के साहब ने कम से कम तीन सौ ईसापूर्व स्वीकार किया है, लेकिन वह कहते हैं- प्रामाणिक वाल्मीकिकृत रामायण में बौद्ध धर्म की ओर निर्देश नहीं मिलता।अतः इसकी रचना बुद्ध के पूर्व ही अथवा पाँचवीं श. ई.पू. में हुई होगी।उनके इस कथन से उनका ही तीसरी सदी ई. पू. वाला मत डोल जाता है।फिर पाणिनीय व्याकरण में राम, दशरथ आदि का उल्लेख न होने से तथा कैकेयी, कौशल्या, शूर्पणखा का सूत्रों में प्रयोग देख भी संशयस्थ हैं।और फिर तीसरी सदी ई. पू. पर आ टिकते हैं।पता नहीं क्यों ऐसी स्थिति है? यदि हम किसी का नाम न लें या हमें किसी के नाम बताने की आवश्यकता न पड़े तो क्या वह व्यक्ति नहीं भी हो सकता है?
खैर, अब वाल्मीकियों की बात करें।बुल्के साहब ने वैयाकरण वाल्मीकि, गरुडवंशीय सुपर्ण वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि, प्राचेतस वाल्मीकि, भार्गव वाल्मीकि, दस्यु वाल्मीकि, कैरात वाल्मीकि, च्यवनपुत्र वाल्मीकि, विष्णुरूपी वाल्मीकि तथा भंगी (लालबेग) वाल्मीकि; ये नाम गिनाए हैं।इनमें आदि रामायणकार वाल्मीकि को ढूँढ़ पाना कठिन है।तो भी यह तो स्पष्ट है कि गुरु नानक जिस वाल्मीकि के पास गए थे, वह तो नहीं हैं।कारण कि नानकदेव जी का समय 1469 – 1539 ई. है।चूँकि इसके पहले अनेक रामकथाकारों ने वाल्मीकि एवं उनकी रामायण की भूरिशः प्रशंसा की है, अतः भंगी (लालबेग) वाल्मीकि नाम जैसा नाम ही मान्य है।
तेरहवीं सदी के पुरुषोत्तम देव अपने त्रिकाण्डशेष कोश में प्राचेतसस्तु वाल्मीकिः कविज्येष्ठः कुशीलवः।अपि वल्मीक-वाल्मीकौ..(2.7.18-19); ये छह पर्याय बताते हैं।‘शब्दकल्पद्रुम’ भी रामायणकर्ता मुनिः। कहकर पुरुषोत्तम देव के उक्त कथन को ही उद्धृत करता है।इससे स्पष्ट है कि रामायणकार प्राचेतस वाल्मीकि हैं, कोई और नहीं।इससे रामदरबार में सीता-समर्पण में महर्षि अपना जो परिचय देते हैं, उसकी पुष्टि भी हो जाती है-
प्रचेतसोsहं दशमः पुत्रो राघव-नन्दन।
न स्मराम्यनृतं वाक्यम् इमौ च तव पुत्रकौ।।(उत्तरकाण्ड-96.19)
अर्थात्; हे रघुनन्दन राम! मैं प्रचेता (वरुण) का दशम पुत्र हूँ।मुझे याद नहीं कि कभी झूठ बोला हूँ।मैं सच कहता हूँ कि ये दोनों आपके ही पुत्र हैं।
अब इससे अधिक मत्था-पच्ची की जरूरत नहीं।फिर भी रत्नाकर व दस्यु वाल्मीकि की कथा भी चलती है, जो सप्तर्षियों के संसर्ग से मुनि हो गए।पुराणों से भी प्रमाणित करना सहज है।तो भी किसी और वाल्मीकि की कहानी के साथ जोड़-तोड़ के सिवा कुछ नहीं।इसलिए तुलसी की उक्ति-‘उलटा नाम जपत जगु जाना’ भी किसी अन्य वाल्मीकि को ही चरितार्थ करती है।
महर्षि वाल्मीकि का आश्रम कहाँ था? तो; इस प्रश्न का उत्तर एक तो अयोध्या की सीमा तमसा नदी के तट के आस-पास ज्ञात होता है और दूसरा चित्रकूट पर्वत पर।पहले का प्रमाण बालकाण्ड का दूसरा अध्याय है, जिसमें तमसा नदी और वाल्मीकि से क्रौंचवध की घटना वर्णित है।फिर अयोध्याकाण्ड का 56वाँ अध्याय है, जिसमें वनवास के समय श्रीराम चित्रकूट में महर्षि के आश्रम के पास उन्हीं से आज्ञा लेकर पर्णशाला बनवाकर रहते हैं।इसका मतलब यह कि उनका आश्रम चित्रकूट पर ही था, पर यात्रा में तमसा नदी के निकट कहीं आए थे, जहाँ क्रौंचवध की घटना घटी थी।
खैर; हमारे यहाँ वैयक्तिक परिचय की अपेक्षा कृतित्व मूल्यवान रहा है।इसलिए इनकी एकमात्र, पर अमर कृति ‘रामायण’ की विशेषता ही निरीक्षणीय है, जिसकी आत्मा निरूपित करते ध्वनिकार आनन्दवर्धन कहते हैं-
काव्यस्यात्मा स एवार्थः तथा चादिकवेः पुरा।
क्रौंचद्वन्द्व- वियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः।।(ध्वन्यालोक-1.5)
अर्थात्; काव्य की आत्मा अर्थ वही है, जो आदिकवि के आदि श्लोक से निकला।क्रौंच पक्षियों के जोड़े का विरह देख कविमुख से शोक श्लोक के रूप में आ निकला।
कहते हैं; महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी में स्नान कर निकले ही कि देखा, क्रौंचों की एक जोड़ी रतिलीन है।तभी किसी बहेलिये ने नर पक्षी को तीर से मार गिराया।मादा बिलख-बिलखकर रो-छटपटा रही थी।कविहृदय भावुक होता ही है।उनके मुँह से निकल पड़ा-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम् अगमःशाश्वतीः समाः।
यत् क्रौंच-मिथुनात् एकम् अवधीः काममोहितम्।।
अरे बहेलिया! तुझे कभी शान्ति नहीं मिलेगी, क्योंकि कामनिरत क्रौंच-मिथुन में से नर को तूने मार डाला है।
आशय यह कि काव्य के लिए करुणा, संवेदना ही मुख्य भाव है, आधारभूमि है।आदिकवि की संवेदना बहेलिये द्वारा मारे गए क्रौंच के जोड़े में नर की हत्या और मादा का विलाप, उसकी छटपटाहट है।जब कोई साहित्यकार चीख-पुकार सुनता है और वह संवेदित, द्रवित हो उठता है, तभी उसकी लेखनी कुछ प्रसव कर पाती है।यों ही रचित रचना यों ही हो जाती है।निष्ठुर, निर्दय क्या लिखेगा? खूब करेगा तो शब्दों का जाल फैलाएगा।
महर्षि की इसी संवेदना की नींव पर रामायण खड़ी हुई, जिसमें उदात्त नायक श्रीराम नायकत्व में सामाजिक विषमताओं में मानवीय मूल्यों का स्थापन किया गया।इसी संवेदना में वन जाते श्रीराम के पीछे सीता-लक्ष्मण के अलावे प्रजा ही चल पड़ती है।पिता प्राण गँवाते हैं, भाई भरत राजपद ठुकराकर संन्यासी हो जाते हैं, तथाकथित पक्षी जटायु सीता के बचाव में जान लगा देते हैं, राम-सुग्रीव दो भिन्न संस्कृतिवाले मित्रता कर प्राणपण से निभाते हैं।ऐसे अनेक चरित्र-चित्र मानवता के संरक्षणार्थ उभरे हैं।
एक सच्चा योद्धा जानता है, कि युद्ध में दोनों पक्षों की महती क्षति होती है।वह अपने प्राण की परवा करता ही नहीं तो अपनों के प्राणों की क्या करेगा? तो भी; धीरतम राम लक्ष्मण को शक्ति बाण से मूर्च्छित देख करुणा-विगलित हो क्या कहते हैं-
देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः।।
अर्थात्; विवाह करना हो जो जगह-जगह स्त्रियाँ मिल सकती हैं, प्रेमवश जगह-जगह बन्धु-बान्धव मिल सकते हैं, परन्तु मैं ऐसी कोई जगह नहीं देखता, जहाँ सगा भाई मिल सकता हो।
यह है भ्रातृत्व!
वाल्मीकि की कृति इतनी आस्वाद्य, इतनी हृद्य है कि कवित्व ही अपना राजमार्ग मान बैठा। इसीलिए यह उपजीव्य हो गया।इसका कवित्व और रससिद्धि पर बड़े-बड़े आलोचक मुग्ध हो जाते हैं।तथाकथित छायावाद व शृंगार की उच्चता का एक बिम्ब देखा जाए, जो शरद्-वर्णन से सम्बन्धित है-
चंचच्चन्द्र- करस्पर्श- हर्षोन्मीलित- तारका।
अहो रागवती सन्ध्या जहाति स्वयमम्बरम्।।(4.30.45)
अर्थात्; शोभामय चन्द्र की चन्द्रिका के स्पर्श से उत्पन्न हर्ष से तारे किंचित् प्रकाशित हो पा रहे हैं।फिर तो प्रेमपगी सन्ध्या आनन्दानुभूति में स्वयं अपने तिमिराम्बर हटा देती है।आशय यह कि शाम होते आकाश में उदित चन्द्रमा के प्रकाश के कारण अँधेरा मन्द पड़ गया और तारे भी मद्धिम पड़ गए हैं।इससे ऐसा प्रतीत है, मानो चन्द्र-रूपी प्रियतम को पाकर बेसुध-सी सन्ध्या-रूपी अभिसारिका ने तारे-रूपी अपनी आँखें मूँद लीं और कालिमा-रूपी वस्त्र स्वतः सरका लिया हो।
‘मूलरामायण’ में महर्षि ने जिन योग्यताओं को अपने काव्यनायक में कल्पना की थी, उनसे युक्त व्यक्ति के बारे में देवर्षि नारद से पूछा था।उन्होंने मात्र राम पर मुहर लगा दी तो इन्होंने अपनी कलात्मक प्रतिभा से रसपेशल बृहदाकार रामायण रचकर अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अमर बना दिया।धन्य है काव्यपुरुष महर्षि वाल्मीकि।
(मेरी पुस्तक ‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)
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