"टूटे हुए किनारों का राग"
पंकज शर्मावक्त की जलराशि में
हमारी आवाज़ें बह गईं—
कुछ तो शब्द लहरों के नीचे
पत्थरों की तरह दबे रह गए,
और कुछ, चाँदनी से लथपथ
किनारों पर आकर बिखर गए।
सत्ता की प्यास से दग्ध
उस वहशत के धधकते धुएँ में
हमारी हड्डियाँ राख बनकर उड़ गईं,
वे मगर
अपने लोहे के महलों पर
गर्व के पताकाएँ गाड़ते रहे।
जन्नत की जंग भी
सिर्फ़ फ़रिश्तों और किन्नरों की नहीं थी—
उसकी गूँज धरती पर गिरी,
कुछ टूटे पंख
नदियों में गुम हो गए,
और कुछ सितारे
सड़कों पर पाँव तले कुचल गए।
हमारे बीच
सिर्फ़ संवाद नहीं टूटा—
एक संपूर्ण भूगोल चटक गया,
धरती की नसों से फूट निकली
एक लंबी, गहरी नहर
जिसने हमें
अनजान किनारों पर बसा दिया।
जो शब्द कभी
अर्थों से आबाद थे,
आज खंडहरों की तरह
सुनसान पड़े हैं।
उनकी गूँज में
रुदन है, आहट है,
और शून्य की खामोश सीटी।
सपनों की खेती
जंग लगे हल से की गई थी,
इसलिए
अन्न नहीं उगा—
केवल काँटे और चिंगारियाँ
फसल बनकर
हमारे घर लौट आईं।
एक शहर की स्मृतियाँ
धूल में दबकर
किसी और शहर का मलबा बन गईं।
हमारे आँगन की नमी
अब नमक के सागर में बदल गई है,
जहाँ आँखें सूखकर
पत्थर हो रही हैं।
किनारों का यह राग
अब भी बहता है—
पर उसकी ध्वनि में
कोई समन्वय नहीं,
सिर्फ़ टूटन है, दरार है,
और उस दरार के भीतर
हमारे युग का
सबसे गहरा मौन।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
हमारी आवाज़ें बह गईं—
कुछ तो शब्द लहरों के नीचे
पत्थरों की तरह दबे रह गए,
और कुछ, चाँदनी से लथपथ
किनारों पर आकर बिखर गए।
सत्ता की प्यास से दग्ध
उस वहशत के धधकते धुएँ में
हमारी हड्डियाँ राख बनकर उड़ गईं,
वे मगर
अपने लोहे के महलों पर
गर्व के पताकाएँ गाड़ते रहे।
जन्नत की जंग भी
सिर्फ़ फ़रिश्तों और किन्नरों की नहीं थी—
उसकी गूँज धरती पर गिरी,
कुछ टूटे पंख
नदियों में गुम हो गए,
और कुछ सितारे
सड़कों पर पाँव तले कुचल गए।
हमारे बीच
सिर्फ़ संवाद नहीं टूटा—
एक संपूर्ण भूगोल चटक गया,
धरती की नसों से फूट निकली
एक लंबी, गहरी नहर
जिसने हमें
अनजान किनारों पर बसा दिया।
जो शब्द कभी
अर्थों से आबाद थे,
आज खंडहरों की तरह
सुनसान पड़े हैं।
उनकी गूँज में
रुदन है, आहट है,
और शून्य की खामोश सीटी।
सपनों की खेती
जंग लगे हल से की गई थी,
इसलिए
अन्न नहीं उगा—
केवल काँटे और चिंगारियाँ
फसल बनकर
हमारे घर लौट आईं।
एक शहर की स्मृतियाँ
धूल में दबकर
किसी और शहर का मलबा बन गईं।
हमारे आँगन की नमी
अब नमक के सागर में बदल गई है,
जहाँ आँखें सूखकर
पत्थर हो रही हैं।
किनारों का यह राग
अब भी बहता है—
पर उसकी ध्वनि में
कोई समन्वय नहीं,
सिर्फ़ टूटन है, दरार है,
और उस दरार के भीतर
हमारे युग का
सबसे गहरा मौन।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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