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थोड़ा ठहरिए... दीप जलाइए मन में भी

थोड़ा ठहरिए... दीप जलाइए मन में भी

डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
थोड़ा ठहरिए, दीप जलाइए मन में भी,
बस बाहरी रोशनी नहीं, कुछ अंदर भी।
ज़रा रिश्तों की धूल हटाइए,
प्यार की बातों से घर सजाइए।


मिठाई बाँटिए, पर मुस्कान भी दीजिए,
जो अकेले हैं, उनके पास भी चलिए।
पटाखे कम, दुआओं की गूँज हो,
शोर नहीं, दिलों में सुकून हो।


कहीं अंधेरा है, तो वहाँ दीप बनिए,
केवल घर नहीं, किसी का जीवन सजाइए।
नया कपड़ा पहनिए, नई सोच लाइए,
पुराने गिले शिकवे अब तो मिटाइए।


पूजा की थाली, पर मन भी शुद्ध हो,
सिर्फ़ रीति नहीं, भावनाओं में बुद्ध हो।
थोड़ा दीवाली का यही अर्थ समझिए,
केवल उत्सव नहीं — आत्मज्ञान भी लीजिए।
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