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अंग्रेज़ों के बाद देश को लूटने में सबसे बड़ा योगदान — प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट अस्पताल

अंग्रेज़ों के बाद देश को लूटने में सबसे बड़ा योगदान — प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट अस्पताल

(डॉ. राकेश दत्त मिश्र)

आज जब हम “लूट” की बात करते हैं तो अक्सर चोर-सूदखोर और भ्रष्ट नौकरशाहों का नाम लिया जाता है। पर असल और लगातार खाई जो बन रही है—वह है प्राथमिक मानवाधिकारों: शिक्षा और स्वास्थ्य का बाजारकरण। प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट अस्पतालों ने गरीब-मध्यवर्ग की कमर तोड़ दी है और सार्वजनिक भावनाओं व राष्ट्रीय हितों के साथ साथ लोकतंत्र की आत्मा पर भी वार किया है।

1) शिक्षा — जहाँ सीखने का हक अब चर्चा नहीं, फीस का बिल है।
पिछले दशक में शहरी निजी स्कूलों की फीस औसतन कई गुना बढ़ी — बच्चों की पढ़ाई अब परिवारों के लिए ‘आइटम’ बन गई है, अधिकार नहीं। सरकारी खर्च में कमी और निजी निवेश के प्रलोभन ने शिक्षा को नेटवर्क-मार्केट की तरह बदल दिया है; लाभ ही प्राथमिक लक्ष्य बन गया। Parents के लिए ट्यूशन, कोचिंग और “सहायक शुल्क” का ढेर हर साल बढ़ रहा है। (India Today)

2) स्वास्थ्य — इलाज जीवन है, पर बिल काल बन गया।
हमारे परिदृश्य में निजी अस्पतालों का कॉर्पोरेटकरण मरीजों के खर्च को आसमान पर ले आया है। इलाज के दौरान अनावश्यक टेस्ट, महँगे इम्प्लांट, और अस्पष्ट बिलिंग आम बात बन गई है। इसका परिणाम: उन्नत इलाज होने के बावजूद घर परिवार दिवालिया हो रहे हैं; आऊट-ऑफ-पॉकेट व्यय (खुद के जेब से भुगतान) बहुत ऊँचा बना हुआ है। यही कारण है कि स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम बढ़ रहे हैं और बीमा का लाभ धीरे-धीरे असुरक्षित बन रहा है। (Reuters)

3) शोषण कैसे संभव हुआ — नीति, लाभ और सरकार की अनदेखी।


निजीकरण को व्यवहारिक ढाँचे, कर-छूट और निवेश-प्रोत्साहन से संवाहित किया गया — जिससे बड़े पूँजी समूह शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में घुस आए। (lyceumindia.in)


जब तक राजनीतिक दबाव या मीडिया-हंगामा नहीं होता, तब तक नियम-निगरानी सुस्त रहती है — यानी “सरकार तब जागती है जब उसे कान पर खट-खट सुनाई दे।” यही वह उक्ति है जो सच को बयान करती है।


पारदर्शिता की कमी (रेट-लिस्ट, एमआरपी, फीस ब्रेकअप) और रेगुलेटरी तंत्र का कमजोर होना इन्हें बढ़ावा देता है। उदाहरण के तौर पर कुछ राज्यों में फीस के विरुद्ध जनहित कार्रवाइयाँ तब हुईं जब माता-पिता ने बड़े आंदोलन किए। (The Times of India)

4) परिणाम — समाजिक असमानता और लोकतंत्र पर आघात।
जब बच्चों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा केवल वह लोग खरीद सकें जिनकी जेब गहरी हो, तो समाज विभाजित हो जाता है — अवसर असमान हो जाते हैं। जब जीवन-रक्षक इलाज की पहुँच कीमतों पर टिकी हो, तब कमजोर वर्गों की मृत्यु दर और कर्ज-भार बढ़ता है। इससे सार्वजनिक भरोसा घटता है और लोकतांत्रिक सहभागिता भी कमजोर होती है। (Education for All in India)

5) समाधान — सर्जिकल और व्यवहारिक कदम (सरकार, समाज और नागरिकों के लिए)

पारदर्शिता अनिवार्य करें: स्कूल व अस्पतालों के लिए स्पष्ट, सार्वजनिक रेट-लिस्ट और शुल्क-ब्रेकअप अनिवार्य होना चाहिए; ऑडिट और खुली सूचना कानून के तहत रिपोर्टिंग। (The Times of India)

कठोर रेगुलेशन + निगरानी: फीस-वृद्धि/चार्जिंग के लिए स्वतंत्र नियामक, शिकायत-समाधान पोर्टल और सख्त दंड। (केंद्र/राज्य मिलकर राष्ट्रीय मानक बना सकते हैं)। (Reuters)

सार्वजनिक निवेश में वृद्धि: शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाकर सार्वजनिक विकल्प मजबूत करें — तभी निजी क्षेत्र का दुरुपयोग कम होगा। (WENR)

नागरिक सशक्तिकरण: अभिभावकों/रुग्णों को जागरूक करें; संघठित माँग-आंदोलन और लोकहित याचिकाओं से जवाबदेही लायी जा सकती है।

पैसा नहीं, अधिकार: शिक्षा और स्वास्थ्य को व्यापार नहीं, अधिकार के रूप में पुनः परिभाषित करना होगा — नीति-कथा में यह परिवर्तन आवश्यक है।

अंग्रेज़ों के बाद देश को लूटने का सबसे बड़ा हथियार अब कागज़ पर नहीं — बाजारीकृत संस्थाएँ हैं, जो शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर लाभ कमा रही हैं। यह सिर्फ आर्थिक लूट नहीं; यह भविष्य की पीढ़ियों और हमारी राष्ट्रीय मानव-पूँजी की चोरी है। सरकार का काम केवल तब तक सीमित नहीं रहना चाहिए कि कब कान पर घंटी बजे — उसे स्वाभाविक रूप से, सक्रिय रूप से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करनी होगी। अगर हम चुप रहे तो यह लूट और तेज़ होगी; अगर हम आवाज़ उठाएँ, नियम बनाएँ और सार्वजनिक विकल्प मजबूत करें — तो यह व्यवस्था लौट सकती है हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप।

— डॉ. राकेश दत्त मिश्र 
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