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‘श्री’ यन्त्र का बाजारीकरण

‘श्री’ यन्त्र का बाजारीकरण

कमलेश पुण्यार्क 
टीन की पूरी चादर सिर पर लादे सोढ़नदासजी पहुँच गए शहर के मशहूर पेन्टर की दुकान पर। जेब से छोटा सा गोल्डन प्रिन्टेड श्रीयन्त्र निकाल कर, पेन्टर से आग्रह करने लगे कि इसका एकदम से ट्रू कॉपी बना दो इस बड़े से टीन की चादर पर।
दीपावली की साफ-सफाई में व्यस्त पेन्टर जरा झुँझलाते हुए बोला—“ दीपावली के बाद कहें तो भले कोशिश करुँगा, हू-ब-हू उतारने का। अभी जल्दबाजी में तो नहीं हो सकता। किन्तु एक बात मुझे समझ नहीं आती कि इतना बड़ा पेन्टिंग बनवाकर करेंगे क्या आप? आपकी शकल-सूरत से तो ऐसा नहीं लगता कि आपके घर में इतनी जगह होगी कि इसे सहेज कर रख सकें। ”
पेंटर की बेवाक टिप्पणी पर सोढ़नदासजी बुझते हुए दीए की तरफ भभक उठे— “ तू कहना क्या चाहता है—यही न कि मैं महलों वाला नहीं हूँ...झोपड़ी में गुज़ारा करने वाला गरीब हूँ...गोशाले की छप्पर उजाड़कर ये टीन की चादर ले आया हूँ । अरे मूरख ! श्रीयन्त्र की असली जरुरत तो हम जैसों को ही है, जिस पर किसी तरह श्रीलक्ष्मी मैया की कृपा बरसे। दो जून की रोटी का जुगाड़ जुट जाए। जवान विटिया की शादी का जुगत जुड़ जाए। गरीबों का लहू चूस कर, सीधे-सुधुओं की ठगी करके, सेलटैक्स-इन्कमटैक्स की चोरी करके, घूस लेकर, मिलावट और कालाबाजारी करके, जिन्होंने अकूत सम्पदा पहले से ही बटोर रखी है, उन्हें भला इस श्रीयन्त्र की क्या आवश्यकता...? ”
इनके बीच तू-तू-मैं-मैं चल ही रही थी कि संयोग से भोंचू शास्त्रीजी उधर से गुजरते नजर आए। सड़क के आर-पार से दोनों की नजरें मिलीं तो राम-सलाम के साथ गले मिलने की ललक से करीब आ गए।
“ ये श्रीयन्त्र लिए फिर रहे हो सोढ़नभाई? तुम ये सब चक्कर में कब से पड़ने लगे? ”
“मैं भला क्यों चक्कर में पड़ू शास्त्रीजी ! किन्तु श्रीमतीजी का अर्जेन्ट फ़रमान जारी हो जाय, तो लागू होना ही होना ही है न ! कल ही किसी तान्त्रिक ने पुर्जा दिया है उन्हें दो हजार रुपये की पूजा सामग्री का और साथ ही ये सिद्धयन्त्र भी। ऐन धनतेरस की आधीरात में इसकी स्थापना होगी श्रीमतीजी के करकमलों से मेरी टुटही मड़ैया में। धूर्त तान्त्रिक ने पूरी दिलाशा दिलायी है कि इसकी स्थापना-पूजा के बाद लक्ष्मी मैया एकदम से अपना घुटना तोड़कर मेरे ही घर आ विराजेंगी...। ”
उनकी बातों के बीच दखल देते हुए, भोंचूशास्त्रीजी कुछ कहना चाह रहे थे, किन्तु सोढ़नदास जी की ‘नन स्टॉप रनिंग ट्रेन ’ का स्टेशन आए तब न ।
वे बोले जा रहे थे— “...इस पर मैंने कहा कि यदि इस छोटे से यन्त्र से लक्ष्मीदेवी घर आकर बैठ सकती हैं , तब तो बड़ा यन्त्र स्थापित करने पर उनकी बड़ी बहन भी जरुर आयेंगी...। मेरी व्यंजना ( दरिद्रा का संकेत) का भाव श्रीमतीजी के पल्ले तो पड़ा नहीं। चट फ़रमान जारी कर दी—तो जाओ न, जल्दी से बड़ा सा यन्त्र बनवा ही लाओ...। ”
शास्त्रीजी ने मुस्कुराते हुए कहा—“ भाभीजी की नासमझी में आप तो नाहक फँस गए सोढ़नभाई! उनको समझाना और जोंते हुए केवाल खेत में खाली पैर सौ चक्कर लगाना, बराबर बात है। पिछली बार ही धनतेरस के समय समझाया था कि बाजारु चोंचलेबाजों के चक्कर में न पडें। सोना-चाँदी की औकात न हो तो राहु-केतु-शनि के सामान—लोड़ा, स्टील, प्लास्टिक आदि कदापि न खरीदें। और वैसे भी धनतेरस तो स्वास्थ्य-धन-प्रदाता धन्वन्तरि का अवतरण दिवस है, जिसे धूर्तों और मूर्खों ने लक्ष्मी-संचय का दिन बना दिया है। आपको याद होगा, उसी प्रसंग में मैंने श्रीयन्त्र पर भी विस्तृत व्याख्यान दे डाला था, किन्तु मुझे क्या पता था—भैंस के आगे बीन बजा रहा हूँ...। ”
सोढ़नदासजी ने सिर हिलाते हुए कहा—“ उस दिन की बातें मुझे शब्दशः याद हैं शास्त्रीजी । आपने ही तो कहा था— “ श्री यन्त्र ” श्रीविद्या-साधना का आधारभूत यन्त्र है और “श्रीविद्या” वेदों की प्राचीनतम एवं गुह्यतम रहस्यों की अन्यतम परिणति । किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि इसका मूल रहस्य और साधना-पद्यति कलि-प्रभाव-ग्रस्त होकर, लुप्त प्रायः है। हालाँकि इसके जानकार अभी भी पृथ्वी पर विराजमान हैं, किन्तु आमजन सुलभ बाजार में नहीं बैठे हैं। बाजार में नहीं बैठे हैं, यानी बिकाऊ नहीं हैं। स्पष्ट है कि योग्य पात्र की श्रद्धा और प्रयास से उपलब्ध हो जा सकते हैं। किन्तु मोटी दक्षिणा देकर खरीदे नहीं जा सकते...। ”
शास्त्रीजी ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा— “ सच में तुमने तो अक्षरशः रट लिया है। किन्तु ध्यान रहे— श्रद्धा और अन्धश्रद्धा में आकाश-पाताल का अन्तर है और इसी भाँति विश्वास और अन्धविश्वास में भी । हास्यास्पद है कि ये विभेद हम औरों के लिए तो सहज ही कर लेते हैं, किन्तु स्वयं के लिए तय कर पाना बड़ा कठिन हो जाता है। अल्पज्ञ पात्र (सामान्य जिज्ञासु) किनारे पर खड़े होकर नाव की गिनती और नाविक से मोल-जोल करने में ही अपना मूल्यवान समय गँवा देता है और मूढ़ व्यक्ति तो बाजारवाद के भेंट चढ़कर श्रम, समय और धन सबकुछ गँवा बैठता है। ”
शास्त्रीजी की बात का समर्थन करते हुए, गिरगिट सा गर्दन हिलाकर सोढ़नदासजी बोले—“ मजेदार बात ये है कि उसे कुछ भी प्राप्त हुआ ही नहीं रहता, मगर ‘नकटे शिष्य’ की तरह स्वयं को सिद्ध समझने और दिखाने की नौटंकी करता है। और फिर ये सिलसिला जारी हो जाता है—अब अन्य लोग उसके पीछे भागने लगते हैं, और फिर उसके पीछे, फिर उसके भी पीछे। इस प्रकार नकटों और विचारहीनों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है। और ये भीड़ ही बाजार को जन्म देती है। धूर्तो और ठगों का बाजार गरम हो जाता है। दरअसल आकांक्षाओं और कामनाओं के पीछे पागल होकर, हम लुटने-लुटाने को तैयार हैं, नाक कटवाने को उत्सुक हैं यदि, तो नाक काटने वाला हमसे कहीं अधिक तत्पर-तैयार बैठा है। ”
शास्त्रीजी ने हामी भरी— “ मैं तो हमेशा कहता हूँ, लोगों को चेताते रहता हूँ—चमत्कार और सिद्धि के चक्कर में फँसने से बचने की आवश्यकता है। चमक-दमक, भीड़-भाड़, बाहरी आडम्बर और दिखावा तो और भी घातक है—सूकरी को सुन्दरी समझकर दौड़ पड़ने जैसी। ”
सोढ़नदासजी ने बीच में टोकते हुए कहा— “ हाँ भाई हाँ। आपकी बातें मुझे याद हैं—सच कहें तो श्रीविद्या कलिमलग्रसित मनुष्य के लिए है भी नहीं। हमारी पात्रता ही नहीं है श्रीविद्या साधना की। संदर्भ तो ध्यान में नहीं है, किन्तु सूक्ति स्मरण में है— जिह्वा दग्धा परान्नेन हस्तौ दग्धौ परिग्रहात् । परस्त्रिभिर्मनोदग्धं मन्त्रसिद्धिः कथं भवेत् ।।—हमारी जीभ परान्न भक्षण से (दूसरे का अन्न खाते-खाते) दग्ध हो चुका है। हमारे हाथ विना परिश्रम या अल्प परिश्रम करके किसी और की वस्तु (दान या उपहार स्वरूप) ग्रहण करने/हड़पने/छीनने/ झपटने में दग्ध हो चुके हैं। और हमारा मन ( दस इन्द्रियों का राजा मन) परस्त्री लिप्सा (कामना) भोगेच्छा में दग्ध हो चुका है। ऐसी विकट त्रासदी में मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र साधना कैसे सिद्ध हो सकती है ! यानी कदापि सिद्ध नहीं हो सकती। ”
पँजा दिखलाते हुए रुकने का इशारा करके, शास्त्रीजी बोले — “ पुराने दिन याद होंगे, अब से पाँच-छः दशक पहले इन खूबसूरत यन्त्रों की चर्चा बिलकुल नहीं थी बाजार में। यदा-कदा ताम्रपत्र पर सुनार से खुदाई कराकर, जानकार लोग कुछ यन्त्रों का प्रयोग किया करते थे। उसी दौर में राजनैतिक वरदहस्त वाले एक धूर्त तथाकथित ज्योतिषी-तान्त्रिक ने ऐसी कई चीजों का जमकर बाजारीकरण किया। रत्नों के नाम पर ‘सेन्थेटिक’ प्लास्टिक, कंकड़-पत्थर, शेर के नाखून से लेकर बिल्ली के जेर (नाल) तक, तरह-तरह की चीजें तन्त्र के नाम पर बिकने लगीं और मुँहमाँगी दामों पर लोग खरीदने को आतुर हो गए। संयोग से एकबार उन महानुभाव से वनारस के सजे-धजे कनात में मेरी मुठभेड़ हो गई, जो सामूहिक ‘शक्तिपात’ और ‘कुण्डिलीजागरण’ का नौटंकी कर रहे थे तथाकथित प्रबुद्ध लोगों के बीच। लाखों नगदी उझलकर लोग स्फटिक का ‘सिद्धश्रीयन्त्र’ खरीद रहे थे उनके स्टॉल से। साधारण रूद्राक्ष भी हीरे-मोती के मोल बिक रहे थे। जवानी के उबाल में मुझसे सहा नहीं गया। नतीजन, तू-तू-मैं-मैं के बाद मुझे हाथ-पैर तोड़ने की धमकी भी दी गई और उनके चमचों-बेलचों-अन्धभक्तों द्वारा अपमानित कर मुझे पंडाल से खदेड़ दिया गया...।
“…बात चली है श्रीयन्त्र की यानी श्रीविद्या-साधना में प्रयुक्त यन्त्र की, तो स्मरण दिला दूँ कि श्रीविद्या की अधिष्ठात्री का तत्वात्मक ज्यामितीय स्वरूप है ये श्रीयन्त्र । भौतिक भूख मिटाने वाली लक्ष्मी से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। ‘षट्चक्रसाधना’ का बाह्योपचार है ये श्रीयन्त्र। गुरु-निर्देशन में वाह्योपचार के पश्चात् अन्तःसाधना में उतरना होता है, जिसमें जीवन खप जाता है, तब कहीं कुछ लब्ध हो पाता है। ये सत्य है कि साधना के उत्तरोत्तर विकास क्रम में ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होने लगती है, किन्तु लौकिक आकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए इसका प्रयोग पारसमणि से चमड़ा कूटने जैसा है। बाजार में मिलने वाले ये यन्त्र टीन के रद्दी टुकड़े के सिवा और कुछ नहीं हैं। मूल्यवान स्फटिक का डिजाइन भी पूजाघर में कबाड़ की तरह ही है। उससे कुछ होना-जाना नहीं है। अतः श्रीमतीजी को समझाओ—बाबा और विज्ञापन के चक्कर में न पड़ें। ‘श्री-सम्पन्न’ होना है तो ईमानदारी से यथोचित श्रम करो। समय से पहले और प्रारब्ध से अधिक कुछ मिलना-जाना नहीं है। और हाँ, तुम्हें यदि इस रहस्यमय विद्या—श्रीसाधना के विषय में विशेष उत्सुकता है तो अपनी पात्रता बनाओ। तन्त्राधीश—शिव से विनती करो...तन्त्रेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी से प्रार्थना करो। और इसके साथ ही अधिकारिक तन्त्रग्रन्थों का मनन-चिन्तन भी करते रहो—किसी सद्गुरु के श्रीचरणों में बैठ कर...। ”
सोढ़नदासजी ने बीच में ही टोका— “ठीक है, किन्तु बात तो वहीं आकर अटक गई न—सद्गुरु और मूलग्रन्थ—ये दोनों दुर्लभ हैं वर्तमान में। टीकाओं की टीका,व्याख्याओं की व्याख्या—मनमर्जी वाली और हुँकार भरता आडम्बरी बाजार...।”शास्त्रीजी ने अन्तिम टिप्पणी की— “बिलकुल ठीक कहा तुमने। किन्तु मैं फिर वही बात दुहराऊँगा—अपनी सुपात्रता की जम कर तैयारी...शबरी की तरह रोज झाड़ू लगाओ...फूल सजाओ...राम तो आयेंगे ही किसी न किसी दिन...। ” अस्तु।
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