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सूर्योपासना की वैश्विक यात्रा: सिंध से बिहार तक

सूर्योपासना की वैश्विक यात्रा: सिंध से बिहार तक

सत्येन्द्र कुमार पाठक
सूर्य, जीवन का स्रोत, ऊर्जा का आदिम भंडार और सनातन धर्म के प्रमुख पाँच देवताओं (पंचदेवों) में से एक, भगवान सूर्य की उपासना का महत्व भारतीय संस्कृति में सदियों से रहा है। यह उपासना, जिसे सौर सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है, केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि एक गहन दार्शनिक, ज्योतिषीय और यहां तक कि चिकित्सा विज्ञान की समझ पर आधारित है। सनातन धर्म का सौर सम्प्रदाय की संस्कृति शाकद्वीप से वैश्विक जड़ों, इसके ऐतिहासिक उतार-चढ़ावों और भारत के विभिन्न क्षेत्रों, विशेषकर बिहार, में इसकी स्थापना और विकास की कहानी को रेखांकित करता है। सूर्य की पूजा की परंपरा भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं रही है, जैसा कि पाठ से स्पष्ट होता है। मिस्र के राजा, पेरू के इंका राजा (जो स्वयं को 'इन' यानी सूर्यवंशी मानते थे), और जापान के सम्राट सभी को सूर्यवंशी माना जाता था। ग्रीक संस्कृति में भी सूर्य को हेलिओस के रूप में पूजा जाता था, और एशिया-यूरोप सीमा पर हेलेसपौण्ट (डार्डेनल) सूर्य पूजा का एक प्रमुख केंद्र था। रूस में भी सूर्य पूजा के प्राचीन प्रमाणों का उल्लेख है। 1987 ई. की खोजों और पंडित मधुसूदन ओझा की पुस्तक 'इन्द्रविजय' (1930) के अनुसार, अर्काइम एक प्राचीन सूर्य पीठ था। पंडित चंद्रशेखर उपाध्याय के लेख 'रूसी भाषा और भारत' (1931) में भी रूसी शब्दों की सूची के तहत रूस में सूर्य पूजा के लिए ठेकुआ बनने का उल्लेख मिलता है, जो छठ पूजा में बनने वाले प्रसाद के समान है।
भारतीय उपमहाद्वीप में सूर्योपासना के कई महत्वपूर्ण केंद्र रहे हैं, जो इसकी व्यापकता को दर्शाते हैं: मूलस्थान (मुल्तान, पाकिस्तान): पाठ के अनुसार, सिंध क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा सूर्य मंदिर स्थित था। मुल्तान का यह सूर्य मंदिर, जिसे मूलस्थान कहा जाता था, सौर सम्प्रदाय का एक अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र था। कोणार्क (ओडिशा): अपनी स्थापत्य कला के लिए विश्व प्रसिद्ध, कोणार्क का सूर्य मंदिर 12 अंश पूर्व देशान्तर पर स्थित एक प्रमुख सूर्य क्षेत्र माना जाता है। मोढेरा (गुजरात): गुजरात का मोढेरा सूर्य मंदिर भी इस परंपरा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर, हरियाणा): यह उत्तर प्रदेश का एक सूर्य क्षेत्र था। देव (औरंगाबाद, बिहार): यह मंदिर, जो कि अंग वंशीय मागध काल में कर्क रेखा के समीप स्थित था, सूर्य उपासना का एक मुख्य स्थान है। मगध साम्राज्य के दौरान, कीकट, मागध, अंग, कर्ण, जरासंध, साम्ब, भगवान राम, कृष्ण, चाणक्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, शक, विक्रमादित्य आदि अनेक राजाओं और विद्वानों ने सूर्योपासना की परंपरा को समृद्ध किया
मुल्तान का सूर्य मंदिर सौर सम्प्रदाय के उत्थान और पतन दोनों का साक्षी रहा है। पाठ में बताया गया है कि मुल्तान के सूर्य मंदिर को अरब आक्रमणकारियों ने रौंद डाला और सूर्य प्रतिमा में जड़े सुर्ख लाल रूबी लूट लिए। इस घटना के परिणामस्वरूप, सूर्य उपासक, जिनमें पख्त राजपूत भी शामिल थे (जिन्हें बाद में पख्तून और पठान कहा गया), मुल्तान से विस्थापित होकर भारत के अन्य हिस्सों में बसने लगे। इन विस्थापितों में से कुछ सूर्य की वैद्यकीय (Medical Importance) को जानने वाले थे। उन्होंने इस परंपरा को बिहार में एक नन्हे पौधे की तरह रोप दिया, जो समय के साथ एक वट वृक्ष (बरगद) बन गया। यह प्रवास सूर्य उपासना को पंजाब और मुल्तान की भूमि से पूर्वी भारत में स्थापित करने का कारण बना। इसी परंपरा से जुड़े सूरी राजवंश का उल्लेख भी पाठ में है। सूर्य उपासकों के परिवार से मुस्लिम बने शेरशाह सूरी बिहार के सासाराम में दफन हैं। यह तथ्य दर्शाता है कि सूर्य उपासना की परंपरा ने क्षेत्र की संस्कृति और इतिहास को किस गहराई से प्रभावित किया था ।
बिहार में स्थापित यह परंपरा आज छठ पूजा के रूप में विश्वभर में प्रतिष्ठित है। यह पर्व, विशेष रूप से मुंगेर-भागलपुर क्षेत्र में, महाभारत काल के महान सूर्य पूजक कर्ण से जुड़ी अंग वंशीय परंपरा को जीवित रखता है।पाठ छठ पूजा के समय और उसके पीछे के ज्योतिषीय एवं समुद्री यात्रा से जुड़े तर्क को स्पष्ट करता है:समुद्री यात्रा की तैयारी: कार्तिक मास में समुद्री तूफान बंद हो जाते थे। इसलिए कार्तिक पूर्णिमा से समुद्री यात्राएं शुरू होती थीं, जिसे ओडिशा में बालि-यात्रा के रूप में मनाया जाता है। नौ दिन पूर्व छठ: बनारस से समुद्र तक जाने में जलयान को 7-8 दिन लगते थे, इसलिए यात्रा से 9 दिन पूर्व छठ पर्व शुरू होता था ताकि यात्रा से पहले घाट पर रसद सामग्री ले जाई जा सके। सादा भोजन और उपवास: ओडिशा में पूरे कार्तिक मास में दिन में एक बार बिना मसाला के सादा भोजन किया जाता था ताकि शरीर समुद्री यात्रा के लिए अभ्यस्त हो सके। बिहार में तीन दिन का निर्जला उपवास इसी तैयारी का एक और कठोर रूप है, जो सूर्य की शक्ति और शरीर के संयम को दर्शाता है। ज्योतिषीय आधार: छठ का संबंध कृत्तिका नक्षत्र से है, जिसे क्रान्तिवृत्त और विषुव वृत्त के कटान बिंदु के रूप में देखा जाता है। यह नक्षत्र ही वैदिक रास-चक्र का आरंभिक बिंदु माना जाता है।
सूर्य को भारतीय ज्योतिष में इनः कहा गया है। ज्योतिषीय गणनाओं में सूर्य की स्थिति से अक्षांश, देशान्तर और दिशा ज्ञात की जाती है, जिसे त्रिप्रश्नाधिकार कहा जाता है। उज्जैन को शून्य देशान्तर माना जाता था, जिससे 6-6 अंश के अंतर पर 60 समय-भाग निर्धारित थे। यह वैश्विक समय की प्राचीन भारतीय संकल्पना थी।
मग ब्राह्मण और शकद्वीपी समुदाय, जो सूर्योपासना के केंद्र स्थापित करने वाले माने जाते हैं, का भी उल्लेख है। मग ब्राह्मण आदित्यदास के द्वारा सूर्य पूजा के पश्चात ही वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी का जन्म हुआ था।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सूर्य उपासना महत्वपूर्ण है। पाठ के अनुसार, शरीर के भीतर नाभि का चक्र सूर्य चक्र पाचन क्रिया को नियंत्रित करता है। सूर्य नमस्कार इसी स्वास्थ्य परंपरा का एक अंग है। गायत्री मंत्र: सूर्य की उपासना का सार में गायत्री मंत्र को सूर्य की उपासना का सार माना गया है। प्रथम पाद (तत् सवितुः वरेण्यं): यह सूर्य के स्रष्टा रूप (Savitā = जन्म देने वाला) का वर्णन करता है। यह सविता (सूर्य) का जन्मदाता परब्रह्म है।द्वितीय पाद (भर्गो देवस्य धीमहि): यह दृश्य ब्रह्म सूर्य के बारे में है। तृतीय पाद (धियो यो नः प्रचोदयात्): यह बताता है कि सूर्य ही अपनी किरणों के माध्यम से हमारी बुद्धि को नियंत्रित करता है।सूर्य केवल एक ग्रह नहीं है, बल्कि परब्रह्म का दृश्य रूप है। सनातन धर्म में, सौर सम्प्रदाय में भगवान सूर्य को इष्ट देव कहा गया है, जिनके 12 अवतारों को आदित्य कहा जाता है। यह परंपरा, जो मुल्तान के विशाल सूर्य मंदिर से शुरू होकर अरबों के वहशत और प्रवास के दौर से गुजरी, आज बिहार के छठ पर्व में अपनी सबसे जीवंत अभिव्यक्ति पाती है। सूर्य उपासना, ज्ञान, ज्योतिष, चिकित्सा और जीवन के निरंतर चक्र की गहरी समझ का प्रतीक है। यह एक वैश्विक सभ्यता का प्रमाण है, जिसने भारत को ज्योतिषीय गणनाओं, समुद्री व्यापार और आध्यात्मिक चेतना का केंद्र बनाया। आज भी, सूर्य की पहली किरण के साथ अर्घ्य देने की परंपरा मानव और प्रकृति के बीच के अटूट रिश्ते को उजागर करती है।
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