हिंदी साहित्य में जासूसी उपन्यास के जनक: गोपाल राम गहमरी
सत्येन्द्र कुमार पाठक
गोपाल राम गहमरी, हिंदी साहित्य के एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिनकी बहुआयामी प्रतिभा ने न केवल हिंदी गद्य को एक नई दिशा दी, बल्कि जासूसी उपन्यासों की एक ऐसी सशक्त परंपरा की नींव रखी जिसने गैर-हिंदी भाषियों को भी इस भाषा को सीखने के लिए प्रेरित किया। वे मात्र एक उपन्यासकार नहीं थे, बल्कि एक समर्पित पत्रकार, एक कुशल अनुवादक और हिंदी भाषा के अहर्निश सेवक थे, जिन्होंने 38 वर्षों तक बिना किसी सहारे के एक ऐतिहासिक पत्रिका का संचालन किया।
गोपाल राम गहमरी का जन्म सन् 1866 (संवत् 1923) में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के ऐतिहासिक गांव गहमर में हुआ था। जन्म के छह मास बाद ही पिता रामनारायण का देहांत हो जाने पर उनकी माता उन्हें लेकर अपने मायके गहमर चली आईं। गहमर के प्रति इस गहरे लगाव के कारण ही उन्होंने अपने नाम के साथ अपने ननिहाल को जोड़ लिया और 'गोपाल राम गहमरी' कहलाए। गहमर में ही उन्होंने वर्नाक्यूलर मिडिल की शिक्षा प्राप्त की। 1879 में मिडिल उत्तीर्ण करने के बाद, उन्होंने चार वर्ष तक गहमर स्कूल में अध्यापन किया और साथ ही उर्दू तथा अंग्रेजी का अभ्यास करते रहे। आर्थिक तंगी के कारण उन्हें पटना नॉर्मल स्कूल में इस शर्त पर प्रवेश मिला कि उत्तीर्ण होने के बाद उन्हें तीन वर्ष तक छात्रों को पढ़ाना होगा। गहमरीजी ने अपनी साहित्यिक यात्रा का प्रारंभ नाटकों और उपन्यासों के अनुवाद से किया। वह बंगला से हिंदी में किए गए अनुवादों के लिए अत्यंत प्रामाणिक माने जाते थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध काव्यकृति 'चित्रागंदा' का प्रथम हिंदी अनुवाद गहमरीजी ने ही किया था। उन्होंने कविता, नाटक, कहानी, निबंध और साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया, लेकिन उन्हें वास्तविक और स्थायी प्रसिद्धि जासूसी उपन्यासों के क्षेत्र में मिली।
सन् 1900 के दौरान, गोपाल राम गहमरी ने एक ऐसी मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जिसने हिंदी साहित्य के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया—वह थी 'जासूस'। उन्होंने लगातार 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के इस पत्रिका का संचालन किया, जो उनकी हिंदी सेवा और दृढ़ संकल्प का अद्वितीय प्रमाण है। इस पत्रिका की नियमितता बनाए रखने के लिए उन्हें प्रायः हर महीने एक नया उपन्यास लिखना पड़ा।
गोपाल राम गहमरी को हिंदी साहित्य में जासूसी उपन्यास का जनक माना जाता है। उन्होंने 200 से अधिक जासूसी उपन्यास लिखे और सैकड़ों कहानियों का अनुवाद किया। उनके जासूसी उपन्यासों की लोकप्रियता का आलम यह था कि देवकीनंदन खत्री के बाद यदि किसी दूसरे लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैर-हिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी, तो वह गोपाल राम गहमरी ही थे। उनकी सहज, सुगम और सुबोध हिंदी ने पाठकों को अपनी ओर आकर्षित किया।
उनके कुछ प्रमुख जासूसी उपन्यास में 'अदभुत लाश' , 'बेकसूर की फांसी' , 'सर-कटी लाश' , 'डबल जासूस' , 'भयंकर चोरी' , 'खूनी की खोज' , 'गुप्तभेद' है।
गहमरीजी ने न केवल जासूसी लेखन की परंपरा को जन्म दिया, बल्कि उन्होंने 'जासूस' शब्द के प्रचलन का श्रेय भी प्राप्त किया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि 1892 से पहले किसी पुस्तक में 'जासूस' शब्द नहीं दिखाई पड़ता था। उनकी पत्रिका 'जासूस' के प्रारंभिक अंकों में ही पाठकों में अभूतपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की, जिसमें जासूसी कहानी के साथ-साथ समाचार, विचार और पुस्तकों की समीक्षाएं भी नियमित रूप से छपती थीं।
गहमरीजी के योगदान को केवल जासूसी उपन्यासों तक सीमित करना उनके साथ अन्याय होगा। हिंदी अपने विकास काल में जब ब्रजभाषा और खड़ीबोली के द्वंद्व से जूझ रही थी, तब गहमरीजी न केवल खड़ीबोली के पक्ष में मजबूती से खड़े हुए, बल्कि उन्होंने ब्रजभाषा के समर्थकों को भी खड़ीबोली के पक्ष में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। सहज, सुगम और सुबोध हिंदी का प्रचार ही उनकी साहित्य सेवा का मुख्य उद्देश्य था। हिंदी गद्य साहित्य के विकास में उनके जासूसी उपन्यासों का योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने बंबई में रहकर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पूरे मुकदमे को अपने शब्दों में दर्ज किया था। उनके संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में प्रतापगढ़ के कालाकांकर से प्रकाशित 'हिन्दुस्थान' दैनिक, 'बंबई व्यापार सिन्धु', 'गुप्तगाथा', 'श्री वेंकटेश्वर समाचार' और 'भारत मित्र' प्रमुख थे। गोपाल राम गहमरी का निधन 1946 ई. में हुआ, लेकिन उनका साहित्यिक प्रभाव आज भी जीवंत है। हिंदी साहित्य में जासूसी उपन्यास के जनक के रूप में उनका नाम सदैव आदर के साथ लिया जाएगा।
यह विडंबना ही है कि गोपाल राम गहमरी की जन्मभूमि गहमर भी अपनी असाधारण विरासत के लिए प्रसिद्ध है। गंगा नदी के किनारे पटना और मुगलसराय रेल मार्ग पर स्थित यह गाँव एशिया महाद्वीप तथा भारत का सबसे बड़ा गाँव है, जो 22 टोलों में फैला हुआ है। गहमर की पहचान केवल साहित्य से नहीं, बल्कि सैनिकों के गाँव के रूप में भी है।
आज गहमर के लगभग 10 हजार लोग इंडियन आर्मी में जवान से लेकर कर्नल तक के पद पर कार्यरत हैं, और यहाँ 14 हजार से अधिक भूतपूर्व सैनिक हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर 1965, 1971 और कारगिल की लड़ाई तक, गहमर के फौजियों ने देश के लिए बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों की फौज में गहमर के 228 सैनिक में से 21 मारे गए थे, जिनकी याद में आज भी गाँव में शिलालेख मौजूद है। सैनिकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए भारतीय सेना ने यहाँ सैनिक कैंटीन की सुविधा भी उपलब्ध कराई थी।
गोपाल राम गहमरी की स्मृति को बनाए रखने के लिए, उनकी जन्मभूमि गहमर पर 'साहित्य सरोज पत्रिका' और 'ऑनलाइन पत्रिका धर्मक्षेत्र' द्वारा पिछले 7 वर्षों से 'गोपाल राम गहमरी साहित्यकार महोत्सव एवं सम्मान समारोह' आयोजित किया जाता है, जो इस महान लेखक को एक सच्ची श्रद्धांजलि है।
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