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धर्मराज यम: जीवन और मृत्यु के नियामक

धर्मराज यम: जीवन और मृत्यु के नियामक

सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म में, यमराज केवल मृत्यु के देवता नहीं हैं, बल्कि वे धर्मराज के रूप में जीवों के कर्मों के निर्णायक और सृष्टि की व्यवस्था के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। भगवान सूर्य पुत्र धर्म के दण्डधर यमराज का प्राकट्य उन्हें एक विशेष स्थान प्रदान करता है। वे भगवान सूर्य (विवस्वत) और उनकी पत्नी संज्ञा (विश्वकर्मा की पुत्री) के पुत्र हैं। उनकी जुड़वां बहन यमुना (यमी) हैं। यह पारिवारिक संबंध उन्हें दैवीय और प्राकृतिक दोनों आयामों से जोड़ता है—जहां सूर्य प्रकाश और जीवन का स्रोत हैं, वहीं यमराज मृत्यु और धर्म का संतुलनकर्ता हैं, और यमुना नदी जीवनदायिनी तथा भाई-बहन के पवित्र प्रेम की प्रतीक हैं। यमराज का स्वरूप भयानक किंतु न्यायपूर्ण है। वह महिषवाहन (भैंसे पर सवार) और दण्डधर हैं। भैंसा शक्ति, अडिगता और मृत्यु का प्रतीक है, जबकि दण्ड उनकी न्याय-व्यवस्था का प्रतीक है। उनकी संयमनीपुरी में पुण्यात्माओं को भगवान विष्णु के नीलाभ रूप में दर्शन मिलते हैं, जबकि अशुभकर्मा प्राणियों को उनका भयंकरतम, धूम्रवर्ण, ज्वालामय रूप दिखाई देता है। यह दोहरी छवि इस बात का संकेत है कि यमराज व्यक्ति के कर्मों के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं, और उनका भय केवल पापियों के लिए है, धर्मात्माओं के लिए नहीं। वैदिक काल के अनुसार, वैदिक काल में यम और यमी को देवता, ऋषि और मंत्रकर्ता माना जाता था। वे 'मृत्यु' से भिन्न थे और मृत पितरों के अधिपति तथा उन्हें आश्रय देने वाले माने जाते थे। ऋग्वेद में, यम को पहले नश्वर व्यक्ति के रूप में वर्णित किया गया है, जिसने मरने का चुनाव किया और मृतकों के लिए "दूसरी दुनिया" का मार्ग बनाया। इस प्रकार, यम केवल एक राजा थे, जिन्होंने मृत लोगों को शांति से विश्राम करने की जगह दी।
ऋग्वेद के 10वें मंडल के 10वें सूक्त में यम और उनकी जुड़वां बहन यमी के बीच एक प्रसिद्ध संवाद है। यमी अपने भाई यम को नश्वर रेखा को जारी रखने के लिए उनके साथ यौन संबंध बनाने के लिए मनाती है, पर यम धर्म और मर्यादा का हवाला देते हुए प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। यह संवाद सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों को स्थापित करता है कि अनाचार और धार्मिक नियमों का उल्लंघन देवताओं के लिए भी वर्जित है, और वंश को आगे बढ़ाने का कार्य धर्मसम्मत तरीके से ही होना चाहिए।।यमराज को धर्मराज भी कहा जाता है क्योंकि वे जीवों के शुभाशुभ कर्मों का विचार करके उन्हें स्वर्ग या नरक में भेजते हैं—अर्थात, वे धर्मपूर्वक विचार करते हैं। यमराज की आराधना उनके चौदह नामों से होती है, जिनका उपयोग पितृ तर्पण में भी किया जाता है: यम , धर्मराज ,मृत्यु ,अंतक ,वैवस्वत (सूर्यपुत्र) ,काल ,सर्वभूतक्षय (सभी जीवों का नाश करने वाला) ,औदुभ्बर , दघ्न नाम से उल्लेख मिलता है । नील , परमेष्ठी ,वृकोदर ,चित्र , चित्रगुप्त कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं ।ये सभी नाम मृत्यु, समय, और ब्रह्मांडीय व्यवस्था में उनके विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं। दीपावली से पूर्व यमदीप देकर उनकी आराधना करने की परंपरा है, जो अंधकार पर प्रकाश और मृत्यु के भय पर विजय का प्रतीक है।
यमराज का एक और महत्वपूर्ण और दार्शनिक स्वरूप कठोपनिषद में दिखाई देता है, जहाँ वे एक ब्राह्मण बालक नचिकेता के शिक्षक के रूप में प्रकट होते हैं। नचिकेता अपने पिता के क्रोधवश दिए गए दान के वचन का पालन करते हुए यमलोक पहुँचता है। तीन दिन तक यमराज की प्रतीक्षा करने के बाद, यम उसे तीन वरदान देते हैं। तीसरे वरदान के रूप में, नचिकेता मृत्यु के बाद आत्मा के रहस्य, ज्ञान और मोक्ष के बारे में पूछता है। यमराज उसे सांसारिक सुख-सुविधाओं का प्रलोभन देते हैं, पर नचिकेता के अडिग संकल्प और वैराग्य से प्रभावित होकर, यम उसे आत्म-तत्व (आत्मा), ज्ञान और मोक्ष (मुक्ति) का उपदेश देते हैं। यमराज बताते हैं कि शरीर का नाश होने पर भी आत्मा अनंत, अनादि और दोष रहित रहती है, और जो व्यक्ति मृत्यु से पहले ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह संवाद यमराज को केवल दण्ड देने वाले देवता के बजाय परम ज्ञानी गुरु के रूप में स्थापित करता है। महाभारत में, यमराज पाँच पांडवों में सबसे बड़े, युधिष्ठिर के वास्तविक पिता थे। युधिष्ठिर को उनके धर्म के प्रति सख्त पालन के कारण ही धर्मराज भी कहा जाता है। महाभारत के वन पर्व में, यमराज एक यक्ष (प्रकृति आत्मा) का रूप धारण करके युधिष्ठिर की धार्मिकता और बुद्धिमत्ता का परीक्षण करते हैं। यक्ष युधिष्ठिर से कई गूढ़ प्रश्न पूछता है, जैसे: अजेय शत्रु कौन है? और सबसे बड़ी बीमारी क्या है? युधिष्ठिर उत्तर देते हैं कि क्रोध अजेय शत्रु है और लोभ एक लाइलाज बीमारी है। युधिष्ठिर के धर्म के ज्ञान और निष्ठा से प्रसन्न होकर, यमराज अपने पुत्र के रूप में स्वयं को प्रकट करते हैं और उनके मृत भाइयों को पुन: जीवनदान देते हैं।
मार्कण्डेय पुराण की कथा यमराज की शक्ति की सीमा को दर्शाती है। मृकण्डु ऋषि के अल्पायु पुत्र मार्कण्डेय ने अपनी आयु पूरी होने पर, यमराज के भय से रेत का शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की घोर आराधना की। जब यमराज स्वयं मार्कण्डेय के प्राण लेने पहुँचे और पाश फेंका, तो अपने भक्त की रक्षा के लिए भगवान शिव स्वयं शिवलिंग से प्रकट हुए और क्रोध में यमराज को अपने त्रिशूल से मारकर उनके प्राण हर लिए। देवताओं के निवेदन और स्वयं मार्कण्डेय के कहने पर, महादेव ने यमराज को पुन: जीवित किया, पर यह वरदान दिया कि कोई भी सच्चा शिवभक्त उनके पाश से मुक्त रहेगा। यह कथा महाकाल शिव की सर्वोच्च शक्ति और भक्त की रक्षा के प्रति उनके समर्पण को दर्शाती है।यमराज का चरित्र सनातन धर्म के न्याय, कर्मफल और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है। वे मृत्यु के भय को दर्शाते हैं, पर साथ ही यह भी बताते हैं कि शुभकर्म और आत्मज्ञान से उनके भय पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यमराज सिर्फ मृत्यु नहीं हैं; वे धर्म हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि इस सृष्टि में हर क्रिया का न्यायपूर्ण परिणाम हो। उनका जीवन दर्शन हमें सिखाता है कि जीवन में धर्म, मर्यादा और आत्मसंयम ही वह मार्ग है जो हमें अंततः उनके लोक में शांति और मोक्ष की ओर ले जाता है।
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