भगवान गणेश: स्वरूप और उपासना
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय सनातन धर्म के विशाल और प्राचीन साहित्य में भगवान गणेश का स्थान अद्वितीय और सर्वोपरि है। वह न केवल 'देवताओं में अग्रणी' और 'अग्रपूज्य' हैं, बल्कि 'विघ्नहर्ता' के रूप में समस्त शुभ कार्यों और जीवन के पथ में आने वाली बाधाओं के नाशक भी माने जाते हैं। विभिन्न ग्रंथों, विशेषकर पुराणों, गणेश पुराण, और शिवपुराण में उनके स्वरूप, प्राकट्य और उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है। भगवान गणेश को अनेक नामों में गणपति/गणेश/गणेश्वर: समस्त गणों (शिवगणों, देवताओं के समूहों) के स्वामी है। गणपति बप्पा/बाप्पा: महाराष्ट्र में अत्यंत प्रेम और भक्ति से पुकारा जाने वाला नाम, जिसका अर्थ है 'पिता' या 'स्वामी'। गजानन: गज (हाथी) के आनन (मुख) वाले। वक्रतुंड: वक्र (टेढ़ी) सूंड वाले। विनायक: विशेष नायक, जो मार्गदर्शक और पूजनीय हैं। मंगलमूर्ति: मंगल या शुभता की मूर्ति। लंबोदर: लंबा (बड़ा) उदर (पेट) वाले, जो समस्त ब्रह्मांड को अपने भीतर समाहित करने का प्रतीक है। विघ्नहर्ता/विघ्नेश्वर: विघ्नों (बाधाओं) को हरने वाले है।
गणेश पुराण एवं संहिताओं के अनुसार, भगवान गणेश का अवतार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को बुधवार के दिन हुआ था। यह तिथि आज भी 'गणेश चतुर्थी' के रूप में पूरे भारत और विश्व भर में सनातन धर्मावलंबियों द्वारा अत्यंत श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाई जाती है। उन्हें पवित्रता, बुद्धि, रिद्धि (समृद्धि) और सिद्धि (पूर्णता) के दाता के रूप में पूजा जाता है। शिवपुराण में भगवान गणेश के प्राकट्य की सबसे प्रसिद्ध और व्यापक रूप से स्वीकृत कथा शिवपुराण के रुद्रसंहिता के चतुर्थ (कुमार) खण्ड में विस्तार से वर्णित है। यह कथा माता पार्वती की ममता, शिवजी के क्रोध, और बालक की असाधारण शक्ति को दर्शाती है।
पुराणों के अनुसार, एक बार माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी सुरक्षा और एकांत सुनिश्चित करने के लिए एक अद्भुत बालक को उत्पन्न किया। उन्होंने उस बालक को आदेश दिया कि वह द्वारपाल बनकर किसी को भी बिना उनकी आज्ञा के भीतर न आने दे। जब भगवान शिव ने प्रवेश करना चाहा, तो बालक ने उन्हें रोक दिया। भगवान शिव ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का अपमान समझा और अपने गणों को बालक से युद्ध करने का आदेश दिया। शिवगणों और बालक के बीच भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन वह बालक इतना शक्तिशाली था कि शिवगण भी उसे पराजित नहीं कर सके।अंततः, क्रोधित होकर भगवान शंकर ने स्वयं अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इस घटना से भगवती शिवा (पार्वती) अत्यंत क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने सृष्टि के विनाश, यानी प्रलय करने का संकल्प कर लिया। देवताओं में भय व्याप्त हो गया। देवर्षि नारद की सलाह पर, सभी देवताओं ने मिलकर जगदम्बा (पार्वती) की स्तुति की और उन्हें शांत करने का प्रयास किया। जब पार्वती जी का क्रोध शांत हुआ, तो उन्होंने अपने पुत्र को पुनर्जीवित करने की शर्त रखी।
भगवान शिव ने अपने गणों को उत्तर दिशा में जाने और सर्वप्रथम मिलने वाले प्राणी का सिर लाने का निर्देश दिया। भगवान विष्णु और अन्य देवता उत्तर दिशा में गए और उन्हें एक गज (हाथी) का मस्तक मिला। मृत्युंजय रुद्र (भगवान शिव) ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर स्थापित कर दिया और उसे पुनर्जीवित कर दिया। गजमुख वाले इस बालक को देखकर माता पार्वती का हर्षातिरेक से भर गया। उन्होंने उसे अपने हृदय से लगाया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, और महेश ने मिलकर उस बालक को सर्वाध्यक्ष (सबका अध्यक्ष) घोषित किया और यह वरदान दिया कि वह सर्वप्रथम पूजित होगा। भगवान शंकर ने बालक से कहा, "गिरिजानन्दन! विघ्नों को नष्ट करने में तुम्हारा नाम सर्वोपरि रहेगा और तुम समस्त गणों के स्वामी, 'गणेश्वर' कहलाओगे। तुम भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुए हो। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश होगा और सिद्धियां प्राप्त होंगी।" इस प्रकार, उस गजमुख बालक को 'गणेश' नाम और 'अग्रपूज्य' का पद प्राप्त हुआ।
शिवपुराण में भगवान गणेश से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है, जो 'गणेश व्रत' के माहात्म्य को स्थापित करती है। एक बार महादेवजी और पार्वती जी नर्मदा नदी के तट पर एक सुंदर स्थान पर चौपड़ (द्यूत क्रीड़ा) खेलने के लिए गए। इस खेल के साक्षी (गवाह) के रूप में, माता पार्वती ने अपनी दिव्य शक्ति से दूर्वा घास को एकत्र कर एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे हार-जीत का निर्णय करने का साक्षी बनाया। दैवयोग से, खेल में तीनों बार पार्वती जी जीतीं। जब बालक से हार-जीत का निर्णय पूछा गया, तो उसने भूलवश महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः, माता पार्वती क्रुद्ध हो गईं और उन्होंने बालक को श्राप दिया कि वह एक पाँव से लंगड़ा हो जाए और उसी कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगे। बालक ने विनम्रतापूर्वक अपनी अज्ञानवश की गई गलती के लिए क्षमा मांगी और शाप मुक्ति का उपाय पूछा। माता पार्वती को उस पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि इस स्थान पर नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन के लिए आएँगी। उनके उपदेश से तुम 'गणेश व्रत' करके मुझे पुनः प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।
एक वर्ष बाद, श्रावण मास में नाग-कन्याएँ वहाँ आईं और उन्होंने बालक को गणेश व्रत की विधि बताई। बालक ने श्रद्धापूर्वक 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। गणेशजी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। बालक ने कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास सकुशल पहुँचने की शक्ति और उनकी प्रसन्नता का वर माँगा। गणेशजी 'तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए। बालक तुरंत कैलाश पहुँचकर भगवान शिव के चरणों में उपस्थित हुआ। शिवजी ने उससे वहाँ पहुँचने का साधन पूछा, तो बालक ने सारी कथा शिवजी को सुनाई। उधर, पार्वती जी उसी दिन से अप्रसन्न होकर शिवजी से विमुख हो गई थीं। तब भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 21 दिन तक श्रीगणेश का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से पार्वती जी के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जागृत हुई और वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँचीं। पार्वती जी ने शिवजी से पूछा कि उन्होंने ऐसा कौन-सा उपाय किया, जिससे उन्हें (पार्वती) उनसे मिलने की तीव्र इच्छा हुई। शिवजी ने उन्हें 'गणेश व्रत' का इतिहास सुनाया। तब पार्वती जी ने भी अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त, 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही माता से मिलने आ गए। कार्तिकेय ने भी इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया और बाद में यही व्रत उन्होंने विश्वामित्रजी को बताया, जिन्होंने इस व्रत से ब्रह्म-ऋषि होने का वरदान प्राप्त किया।
श्री गणेशजी, जो माता पार्वती द्वारा दूर्वा से भी उत्पन्न किए गए थे (दूसरी कथा में), अत्यंत कृपालु हैं और उनका व्रत (गणेश व्रत) सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। भगवान गणेश की उपासना सनातन धर्म का एक अनिवार्य अंग है। उन्हें अग्रपूज्य होने का वरदान प्राप्त है, इसलिए किसी भी शुभ कार्य, पूजा, या अनुष्ठान के प्रारंभ में सर्वप्रथम उन्हीं की पूजा की जाती है, ताकि कार्य निर्विघ्न संपन्न हो सके।
गणेश चतुर्थी का पर्व भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। महाराष्ट्र में यह 'गणपति बाप्पा' के उत्सव के रूप में एक प्रमुख पर्व है, जहाँ सार्वजनिक मंडलों और घरों में गणपति की प्रतिमा स्थापित की जाती है और दस दिनों तक भव्य उत्सव मनाया जाता है। बिहार और आसाम जैसे क्षेत्रों में इसे 'बहुला चतुर्थी' और गणेश पूजा के रूप में मनाया जाता है। भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए उनकी उपासना में कुछ विशेष वस्तुएँ अत्यंत प्रिय मानी जाती हैं: दूर्वा घास (दूब) गणेश जी को अति प्रिय है, क्योंकि इसका संबंध उनकी उत्पत्ति और उनकी शीतलता से है। 21 दूर्वा की गाँठें बनाकर उन्हें अर्पित की जाती हैं। मोदक/लड्डू: मोदक या मीठे लड्डू उनका प्रिय भोग है।
गणेश चतुर्थी (भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी) की रात्रि में चंद्र-दर्शन निषिद्ध माना गया है। शास्त्रों के अनुसार, इस रात्रि को चंद्रमा को देखने पर व्यक्ति को 'झूठा कलंक' प्राप्त होता है। इसके पीछे की कथा यह है कि एक बार चंद्रमा ने गणेश जी के गजमुख रूप का उपहास किया था, जिसके फलस्वरूप गणेश जी ने उन्हें शाप दिया था।
यदि किसी व्यक्ति को जाने-अनजाने में इस रात्रि को चंद्रमा दिख भी जाए, तो उन्हें झूठे कलंक से मुक्ति के लिए निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए: ’सिहः प्रसेनम् अवधीत्, सिंहो जाम्बवता हतः। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥’ भगवान शिव ने पार्वती जी को बताया कि कृष्ण पक्ष की चतुर्थी (संकष्टी चतुर्थी) की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश की पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अर्घ्य देकर, ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाकर और स्वयं मीठा भोजन करने पर वर्ष पर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की सभी मनोकामनाएँ अवश्य पूर्ण होती हैं। भगवान गणेश का चरित्र और प्राकट्य कथाएँ हमें यह शिक्षा देती हैं कि शक्ति (शिव) और ममता (पार्वती) के मिलन से ही बुद्धि और विवेक (गणेश) का जन्म होता है। वह न केवल भौतिक समृद्धि (रिद्धि-सिद्धि के दाता) के स्वामी हैं, बल्कि ज्ञान, शुद्धता और विघ्ननाशक शक्ति के भी प्रतीक हैं।
भारतीय प्रवासी और सनातन संस्कृति के लोग विश्व भर में गणेश पूजा का महत्व समझते हैं और उनकी उपासना करते हैं। भगवान गणेश, जो सबकी कामनाएँ पूर्ण करने वाले हैं, हर युग और हर कार्य के प्रारंभ में पूजित होकर, भक्तों को सफलता, शांति और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। उनकी उपासना का मर्म केवल कर्मकांड में नहीं, बल्कि जीवन में बुद्धि, विवेक और विनम्रता को सर्वोपरि रखने में निहित है, जैसा कि उस बालक ने अपनी भूल स्वीकार कर विनम्रता से क्षमा माँगी थी। भगवान गणेश समस्त मानव जाति के लिए 'मंगलमूर्ति' और 'विघ्नहर्ता' हैं।
सनातन धर्म में भगवान गणेश की पूजा अग्रपूज्य देवता के रूप में की जाती है। गणेश पुराण और मुद्गल पुराण जैसे ग्रंथों में उनके विभिन्न अवतारों का वर्णन है, जो उन्होंने धर्म की रक्षा और असुरों के नाश के लिए चारों युगों में लिए थे।
गणेश जी का प्रमुख नाम गणपति, गजानन, वक्रतुंड, विनायक, लंबोदर, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, एकदंत, महोदर, धूम्रकेतु है। भगवान शिव की भर्या माता पार्वती ( शिवा ) के पुत्र , कार्तिकेय ( स्कन्द , मुरुगन ) के भाई गणेश जी की बहन अशोक सुंदरी है। गणेश जी की पत्नियां में ऋद्धि (समृद्धि की देवी) और सिद्धि (आध्यात्मिक शक्ति/पूर्णता की देवी)। कुछ ग्रंथों में इन्हें 'बुद्धि' और 'सिद्धि' भी कहा गया है। पुत्र में क्षेम (जिसे लोक परंपरा में शुभ कहा जाता है) और लाभ। पुत्री संतोषी माता (लोक कथाओं और कुछ परंपराओं के अनुसार गणेश जी की पुत्री हैं)।
गणेश पुराण के अनुसार, गणेश जी ने प्रत्येक युग में विशेष रूप से अवतार लिया, जिनका उद्देश्य उस युग के प्रमुख आसुरी शक्तियों का नाश और धर्म की स्थापना करना था ।
सतयुग (कृतयुग) में महोत्कट (या विनायक) ऋषि कश्यप और देवी अदिति के पुत्र। उन्होंने दस भुजाओं के साथ सिंह पर सवार होकर, अहंकार का प्रतीक देवान्तक और नरान्तक राक्षसों का वध किया।
त्रेतायुग मयूरेश्वर (या गुनेश/गजानन) देवी उमा के पुत्र के रूप में। उन्होंने मोर पर सवार होकर सिंधु नामक राक्षस का वध किया और ऋद्धि एवं सिद्धि से विवाह किया था । द्वापरयुग में गजानन (या महोदर) देवी पार्वती के पुत्र के रूप में। उन्होंने मूषक (चूहे) पर सवार होकर, सिंदूर नामक असुर का विनाश किया। इस अवतार में उन्होंने गणेश गीता का उपदेश दिया। कलियुग में धूम्रकेतु (या धूम्रवर्ण) (पुराणों में भावी अवतार) यह उनका भावी अवतार है। वे नीले घोड़े पर सवार होकर, अहंकार (स्वार्थ) के प्रतीक दैत्यों का नाश करेंगे और धर्म की पुनर्स्थापना करेंगे।
वक्रतुंड, एकदंत, महोदर, विकट, लंबोदर, गजानन, विघ्नराज और धूम्रवर्ण को मुद्गल पुराण में गणेश जी के आठ अवतार (अष्टविनायक) के रूप में भी वर्णित किया गया है।
गणेश जी की उपासना किसी भी युग में सदैव अग्रपूजा के रूप में की जाती है। किसी भी शुभ कार्य या देवी-देवता की पूजा से पहले गणेश जी की पूजा करना अनिवार्य है, ताकि कार्य में कोई विघ्न न आए। उनकी पूजा गजमुख स्वरूप में की जाती है, जो बुद्धि और शुभता का प्रतीक है। उन्हें दूर्वा, मोदक (लड्डू) और सिंदूर अति प्रिय हैं। गणेश चतुर्थी (भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी) और प्रत्येक मास की संकष्टी चतुर्थी (कृष्ण पक्ष चतुर्थी) पर विशेष रूप से उनकी उपासना की जाती है।
गणेश जी: विश्वव्यापी उपासना और प्रमुख मंदिर
गणेश जी, जिन्हें विघ्नहर्ता, प्रथम पूज्य और बुद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है, की उपासना और मंदिर न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में फैले हुए हैं। भक्तों के लिए ये मंदिर आध्यात्मिक महत्व के केंद्र हैं, जहां भगवान गणेश के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। भारत, भगवान गणेश की उपासना का केंद्र रहा है, जहां उनके विभिन्न रूपों को समर्पित कई प्राचीन और लोकप्रिय मंदिर स्थापित हैं:।सिद्धिविनायक मंदिर मुंबई, महाराष्ट्र यह भगवान गणेश को समर्पित सबसे लोकप्रिय और पुराने पवित्र मंदिरों में से एक है। इसकी गणना सिद्धपीठों में होती है। अष्टविनायक मंदिर पुणे के समीप, महाराष्ट्र यह भगवान गणेश के आठ स्वयंभू स्वरूपों को समर्पित आठ मंदिरों का समूह है, जिनका पौराणिक महत्व है। बड़ा गणेश मंदिर उज्जैन, मध्य प्रदेश यह मंदिर भगवान गणेश की 18 फीट ऊंची विशाल मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। सुप्तेश्वर गणेश मंदिर जबलपुर, मध्य प्रदेश यह मंदिर भगवान गणेश की विशाल स्वयंभू मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है, जहां उनकी पूजा कल्कि अवतार में की जाती है। रॉकफोर्ट उच्ची पिल्लयार मंदिर तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु यह मंदिर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और भगवान गणेश की प्राचीन मूर्ति के लिए जाना जाता है।
दोडा गणपति मंदिर बैंगलुरू, कर्नाटक यह मंदिर भगवान गणेश की विशाल मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। खजराना गणेश मंदिर इंदौर, मध्य प्रदेश यह मंदिर भगवान गणेश की स्वयंभू मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है।त्रिनेत्र रणथंभौर गणेश मंदिर सवाई माधोपुर, राजस्थान यह मंदिर भगवान गणेश की त्रिनेत्र स्वरूप की मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। मान्यता है कि यहां गणेश जी अपने पूरे परिवार (पत्नी रिद्धि और सिद्धि तथा पुत्र शुभ और लाभ) के साथ विराजमान हैं। विश्व की पहली जुड़वा भगवान गणेश की प्रतिमा दंतेवाड़ा जिला, छत्तीसगढ़ यह स्थान विश्व की पहली जुड़वा भगवान गणेश की प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। गणेश जी की पूजा भारतीय संस्कृति से निकलकर विश्व के कई अन्य देशों में भी पहुँच चुकी है। विभिन्न देशों में स्थित कुछ प्रमुख गणेश मंदिर हैं: अमेरिका न्यू यॉर्क सहित अमेरिका में कई गणेश मंदिर हैं। इंग्लैंड लंदन में स्थित स्वामीनारायण मंदिर सहित विभिन्न मंदिरों में गणेश जी की पूजा की जाती है। लंदन में श्री गणपति मंदिर, विंबलडन भी प्रसिद्ध है।फ्रांस पेरिस में स्थित श्री मणिकविनयकर आलयम मंदिर में गणेश जी की मूर्ति स्थापित है।मॉरीशस मॉरीशस में भगवान गणेश को समर्पित कई मंदिर हैं, जिनमें से एक प्रमुख मंदिर ग्रैंड बे में स्थित है।इंडोनेशिया इंडोनेशिया में, विशेषकर बाली द्वीप पर, हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए गणेश जी एक महत्वपूर्ण देवता हैं और यहाँ कई गणेश मंदिर हैं। चीन चीन में, खासकर बौद्ध और ताओ धर्म के अनुयायियों के बीच, गणेश जी की पूजा करने वाले कुछ मंदिर पाए जाते हैं। नेपाल नेपाल में भी कई गणेश मंदिर हैं, जैसे सूर्यविनायक मंदिर (भक्तपुर), अशोक विनायक मंदिर (काठमांडू) और अन्य। मलेशिया श्री सिथी विनयगर मंदिर (पीजे पिल्लैयार मंदिर) यहाँ का प्रसिद्ध गणेश मंदिर है। जापान जापान में लगभग 250 गणेश मंदिर हैं, जहाँ उन्हें केंगिटेन या शोटेन जैसे नामों से जाना जाता है। सबसे बड़ा मंदिर ओसाका के बाहर माउंट इकोमा पर स्थित Hōzan-ji है।
गणेश जी की उपासना विश्वभर में फैले हुए इन मंदिरों के माध्यम से विभिन्न संस्कृतियों में होती है, जो उनकी सार्वभौमिक अपील और आध्यात्मिक महत्व को दर्शाती है। वे भक्तों के जीवन से बाधाओं को दूर कर सुख, शांति और समृद्धि लाते हैं।
भगवान गणेश को हिंदू धर्म में प्रथम पूज्य और विघ्नहर्ता के रूप में जाना जाता है। बाधाओं को दूर करने वाले, बुद्धि, ज्ञान और सौभाग्य के देवता के रूप में उनकी पूजा भारत की सीमाओं से परे जाकर विश्वभर की कई संस्कृतियों और धर्मों में फैली हुई है। उनका वैश्विक विस्तार मुख्य रूप से व्यापार, बौद्ध धर्म के प्रसार और भारतीय प्रवासियों की उपस्थिति के कारण हुआ है। इस क्षेत्र में गणेश जी की उपासना का गहरा और प्राचीन इतिहास है, जो यहाँ की स्थानीय संस्कृति और हिंदू-बौद्ध परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इंडोनेशिया (विशेषकर बाली):में गणेश जी को यहाँ बुद्धि, कला और समृद्धि के देवता के रूप में पूजा जाता है। आश्चर्यजनक रूप से, इंडोनेशिया के 20,000 रुपये के नोट पर भी भगवान गणेश की तस्वीर छपी हुई है, जो उनकी राष्ट्रीय महत्ता को दर्शाता है। बाली में, वे कला और विज्ञान के संरक्षक के रूप में पूजे जाते हैं। थाईलैंड: में गणेश जी को 'फ्रा फिकानेट' के नाम से पूजा जाता है और उन्हें कला, व्यापार और सफलता का आशीर्वाद देने वाला माना जाता है। थाईलैंड के चाचोएंगसाओ प्रांत में दुनिया की सबसे ऊंची गणेश प्रतिमा स्थापित है।गणेश चतुर्थी जैसे त्योहार यहाँ बड़े उत्सव के रूप में मनाए जाते हैं।कंबोडिया के कुछ प्राचीन चित्रणों में भगवान गणेश को मानव सिर के साथ भी चित्रित किया गया है, जो स्थानीय कलात्मक अनुकूलन को दर्शाता है। नेपाल में गणेश जी को सिद्धिदाता और संकटमोचन के रूप में माना जाता है। यहाँ अनेक प्राचीन गणेश मंदिर हैं, जैसे सूर्यविनायक मंदिर और अशोक विनायक मंदिर है। बौद्ध धर्म के प्रसार ने गणेश जी की उपासना को जापान जैसे देशों में पहुँचाया, जहाँ उन्हें स्थानीय देवताओं के रूप में आत्मसात किया है। जापान में गणेश जी को 'कांगितेन' या 'शोटेन' के नाम से जाना जाता है। वे यहाँ सौभाग्य, धन और बाधाओं को दूर करने वाले देवता माने जाते हैं, खासकर व्यापारिक सफलता के लिए है।
जापानी बौद्ध धर्म के तांत्रिक रूप (शिंगोन बौद्ध धर्म) के माध्यम से उनका आगमन 8वीं-9वीं शताब्दी ईस्वी में हुआ।
जापान में लगभग 250 से 300 गणेश मंदिर हैं। उनका प्रिय प्रसाद मोदक के बजाय मूली है। चीन और तिब्बत में, गणेश जी को दुष्टात्माओं के दुष्प्रभाव से रक्षा करने वाला देवता माना जाता है। चीन के प्राचीन बौद्ध मंदिरों में भी गणेश जी की प्रतिमाएं पाई गई हैं। पश्चिमी देशों में प्रवासियों द्वारा विस्तार 19वीं और 20वीं शताब्दी में भारतीय प्रवासियों के बड़े पैमाने पर पलायन के कारण, गणेश उपासना पश्चिमी दुनिया में मजबूत हुई है। उत्तरी अमेरिका (अमेरिका और कनाडा): , न्यूयॉर्क, ह्यूस्टन, टोरंटो शहरों में बड़े और भव्य गणेश मंदिर स्थापित किए गए हैं, जो भारतीय-अमेरिकी समुदाय के लिए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र बन गए हैं। लंदन, पेरिस और अन्य यूरोपीय शहरों में भी गणेश मंदिर पाए जाते हैं, जहाँ भारतीय मूल के लोग और स्थानीय भक्त नियमित रूप से पूजा करते हैं। मॉरीशस और दक्षिण अफ्रीका देशों में भारतीय मूल के लोगों की बड़ी आबादी होने के कारण गणेश जी के कई भव्य और लोकप्रिय मंदिर स्थापित हैं, और गणेश चतुर्थी जैसे त्योहार बड़े उत्साह के साथ मनाए जाते हैं।गणेश जी का यह विश्वव्यापी विस्तार दर्शाता है कि उनका स्वरूप किसी एक धर्म या संस्कृति तक सीमित नहीं है। वह ज्ञान, बुद्धि और शुभता के सार्वभौमिक प्रतीक हैं, जिनकी पूजा विभिन्न देशों में, अलग-अलग नामों और रूपों में, लेकिन समान श्रद्धा और उद्देश्य (बाधाओं को दूर करना) के साथ की जाती है।
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