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जनसुराज पार्टी - बिहार की राजनीति में नया समीकरण या वोट बंटवारा?

जनसुराज पार्टी - बिहार की राजनीति में नया समीकरण या वोट बंटवारा?

दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |

बिहार की राजनीति एक बार फिर सुर्खियों में है। कारण हैं “प्रशांत किशोर”, जिन्हें कभी चुनावी रणनीति का ‘चाणक्य’ कहा जाता था। देशभर में अलग-अलग दलों को चुनाव जिताने वाले इस रणनीतिकार ने अब खुद अपनी पार्टी ‘जनसुराज पार्टी’ बनाकर मैदान में उतरने का ऐलान किया है। सवाल यही है कि क्या यह कदम बिहार की राजनीति को बदलेगा, या फिर यह सिर्फ वोट बैंक में सेंध लगाने वाली कोशिश साबित होगी?


प्रशांत किशोर का नाम भारतीय राजनीति में कोई नया नहीं है। उन्होंने सबसे पहले 2012-13 में गुजरात में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की टीम में काम किया था और ‘चाय पे चर्चा’ जैसी मुहिम के जरिए बीजेपी की छवि को राष्ट्रीय स्तर पर चमकाया था।


इसके बाद उन्होंने 2014 के बाद दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी, फिर बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी, और फिर बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू को रणनीतिक रूप से बड़ी जीत दिलाई थी।


उनकी पहचान एक ऐसे ‘कमर्शियल पॉलिटिकल कंसल्टेंट’ की रही, जो विचारधारा नहीं बल्कि नतीजे बेचता था। लेकिन अब उन्होंने खुद चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है, यह वही व्यक्ति है जिसने कभी कहा था कि “मैं किसी राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं बनूंगा, बल्कि जनता के लिए काम करूंगा।”


प्रशांत किशोर ने ‘जनसुराज पार्टी’ की घोषणा करते हुए कहा है कि वे बिहार को ‘नए विकास मॉडल’ की ओर ले जाना चाहते हैं। उनके अनुसार, बिहार का पिछड़ापन केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का परिणाम है।


उन्होंने करीब दो साल तक ‘जनसुराज यात्रा’ के जरिए 30,000 किलोमीटर से अधिक की पैदल यात्रा की और जनता से सीधा संवाद किया। उनका दावा है कि यह पार्टी न जाति के आधार पर चलेगी, न धर्म के, बल्कि विकास, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों पर आधारित होगी। लेकिन आलोचकों का मानना है कि प्रशांत किशोर का यह कदम ‘राजनीतिक प्रयोग’ से ज्यादा ‘राजनीतिक महत्वाकांक्षा’ का परिणाम है। जो व्यक्ति वर्षों तक दूसरों की चुनावी गोटियां बिछाता रहा, वह अब खुद की पार्टी को मोहरे के रूप में मैदान में उतारा है।


बिहार का वोटर जातीय समीकरणों से गहराई तक जुड़ा है। यहां राजनीति सामाजिक संरचना से निकलकर चलती है, यानि यादव, कुर्मी, राजपूत, दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण आदि का समीकरण ही सत्ता का रास्ता तय करता है। प्रशांत किशोर इन जातीय बंधनों से ऊपर उठने की बात कर रहे हैं, लेकिन सवाल है, क्या बिहार की जमीन पर ऐसा आदर्शवादी मॉडल टिक पाएगा?


जनसुराज पार्टी को फिलहाल कोई ठोस जातीय या संगठनात्मक आधार नहीं मिला है। न उसके पास अनुभवी जनाधार वाले नेता हैं, न किसी बड़े समुदाय की खुली समर्थन घोषणा। इस लिहाज से, उनकी पार्टी सीधे सत्ता में आने की बजाय अन्य दलों के वोट काटने का काम कर सकती है।


अगर राजनीतिक समीकरणों का विश्लेषण किया जाए तो प्रशांत किशोर का प्रभाव मुख्यतः जेडीयू और कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक पर पड़ सकता है। प्रशांत किशोर एक समय नीतीश कुमार के बेहद करीबी थे। उनकी छवि ‘अच्छे शासन’ और ‘विकास पुरुष’ की रही, लेकिन अब जनसुराज पार्टी उसी ‘सुशासन’ के विकल्प के रूप में खुद को पेश कर रही है। इससे जेडीयू का कुर्मी और गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक प्रभावित हो सकता है।


जनसुराज का शहरी और शिक्षित वर्ग में असर कांग्रेस के सीमित वोट शेयर को और कमजोर कर सकता है। राजद का वोट बैंक जातीय रूप से मजबूत (यादव-मुस्लिम) है। फिलहाल जनसुराज उसके वोटों को बहुत अधिक नहीं तोड़ पाएगा, लेकिन युवा बेरोजगारों के बीच इसका थोड़ा असर संभव है।


बीजेपी फिलहाल प्रशांत किशोर के आगमन को ‘विपक्ष में वोट बिखराव’ के रूप में देख रही है। अगर जनसुराज पार्टी विपक्ष के वोटों को बांटने में सफल होती है, तो इसका परोक्ष लाभ बीजेपी को मिल सकता है।


राजनीतिक पृष्ठभूमि में देखा जाए तो प्रशांत किशोर का यह कदम “जनसेवा” से अधिक राजनीतिक प्रयोग लगता है। उन्होंने जिन-जिन राज्यों में काम किया है, वहां हमेशा कमर्शियल एग्रीमेंट के तहत राजनीतिक परामर्श दिए। ऐसे में अब उनका जनता के ‘निस्वार्थ’ प्रतिनिधि के रूप में सामने आना कई लोगों को सहज नहीं लगता है। राजनीति में नीयत और विश्वसनीयता सबसे बड़ा पूंजी होता है, और प्रशांत किशोर की इस पूंजी की परीक्षा अब जनता करेगी।


प्रशांत किशोर का राजनीति में उतरना निश्चित ही बिहार की सियासत में हलचल पैदा कर रहा है। वे मुद्दे जरूर उठा रहे हैं शिक्षा, बेरोजगारी, पलायन, स्वास्थ्य, प्रशासनिक सुधार, लेकिन यह देखना बाकी है कि क्या जनता उन्हें ‘राजनीति का सुधारक’ मानेगी या ‘रणनीति का व्यापारी’। संभावना यही है कि 2025 के विधानसभा चुनाव में जनसुराज पार्टी सत्ता के तराजू को झुका तो नहीं पाएगी, पर उसकी मौजूदगी कुछ सीटों पर परिणामों को प्रभावित जरूर करेगी। इससे सबसे ज्यादा नुकसान जेडीयू और कांग्रेस को हो सकता है, जबकि परोक्ष लाभ बीजेपी को मिलेगा। -----------
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